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रणसिंह का चरित्र
श्री उपदेश माला पार पहुँचाने वाले ऐसे श्री जिनवचन में हे गुणों के आकर वत्स! क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इस प्रकार वे उसे कह रहे थे। इतने में रणसिंह की माता विजया साध्वी वहाँ आयी और कहा-हे वत्स! तुम्हारे पिता श्रीधर्मदास गणि ने तुम्हारे लिए यह उपदेश माला बनायी है। पहले तुम इसका अध्ययन करो पश्चात् अर्थ का चिंतन करो। अन्य धर्म को छोड़कर श्रेष्ठ मोक्ष सुख का उपार्जन करो। रणसिंह ने माता के वचन सुनकर अध्ययन करने की यह बात स्वीकार की।
श्रीजिनदास गणि पहले श्लोक पढ़ते, राजा भी वैसे ही उस श्लोक को दोहराता इस प्रकार दो-तीन बार गणना करने से उसने तत्काल ही उपदेश माला कंठस्थ कर ली। उसके अर्थ चिंतन करने पर उसे वैराग्य उत्पन्न होने लगा। राजा ने सोचा-मैंने अज्ञान वश कैसा आचरण किया है? मेरे पिता को धन्य है, जिन्होंने अवधिज्ञान से मेरा स्वरूप जानकर पहले ही इस ग्रंथ को बनाया है। अब इस बिजली के चमकारे सम विषय-सुख से पर्याप्त हुआ।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं चञ्चलयौवनं ।
चलाचलेऽस्मिन्संसारे, धर्म एको ही निश्चलः ॥ . लक्ष्मी चंचल, प्राण चंचल, यौवन चंचल, चलाचल इस संसार में एक धर्म ही निश्चल है।
घर आकर वह न्यायधर्म का पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् कमलवती के पुत्र को राज्य पर स्थापित कर स्वंय ने श्री मुनिचंद्र के पास चारित्र अंगीकार किया। शुद्ध चारित्र का परिपालन कर देवलोक में उत्पन्न हुआ। कमलवती के पुत्र ने भी इस उपदेश माला का अध्ययन किया। सभी लोग परस्पर पढ़ने लगे। इसी क्रम से यह उपदेश माला आज भी पृथ्वीतल पर जयवंती है। इस उपदेश माला प्रकरण को स्व पुत्र प्रतिबोध के लिए श्रीधर्मदासगणि ने बनायी है। अन्यभी इसका रहस्य सम्यग् रूप से अवधारण करना। यह कथन वृद्ध संप्रदाय से दर्शाया
॥ श्री उपदेशमाला में प्रथमपीठिका की समाप्ति ।।