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________________ श्री उपदेश माला रणसिंह का चरित्र लक्ष्मी से गृहस्थपना, आँखों से मुख, रात्रि से चंद्र, पति से कमलाक्षी, न्याय से राज्य, वितरणकला से लक्ष्मी, विक्रम पराक्रम से राजा, नीरोगता से काया, अदागपने से कुल, मदरहितता से विद्या, निर्दभपने से मैत्री वैसे करुणा से धर्म शोभा देता है अन्यथा नहीं। इस कारण से आश्रव संसार का हेतु और संवर निवृत्ति का असाधारण कारण सिद्धांत में कहा है। अतः हे वत्स तेरा यह सज्जन स्वभाव भी कलिपुरुष के छलने से विपरीत हुआ। परंतु यह दुर्जनत्व योग्य नहीं है। कहा भी है वरं क्षिप्तः पाणि: कुपितफणिनो वकाकुहरे । वरं झम्पापातो ज्वलदनकुण्डे विरचितः ॥ वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो । न जन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदां सद्य विदुषा । कुपित सर्प के मुखरूपी बील में हाथ डालना अच्छा बनाये हुए जलते अग्नि के कुंड में झंपापात करना अच्छा, भाले की अणी शीघ्र पेट में डालनी अच्छी परंतु विदुषों को विपत्ति के घर जैसी दुर्जनता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। कलिपुरुष के कथन से तूंने न्यायमार्ग छोड़ा है, किंतु यह नही विचारा कि क्या दुःखमाकाल रूप कलि बोल सकता है? यह किसी दुष्ट देव का उपद्रव मालुम होता है। यदि कलिपुरुष के आदेश से तुम हिंसा आदि पापकर्मों का आचरण करोगे, तो उससे क्या नरकगति नहीं होगी? क्या कलिकाल में विष भक्षण से मौत नही होती है? कलिकाल में भी जैसा आचरण करोगे वैसा ही फल मिलेगा। उनके वचन सुनकर राजा ने अपना मुख नीचे कर लिया। तब श्री जिनदास गणि ने कहाहे वत्स! तेरे पिता के वाक्य श्रवणकर प्रतिबोध को प्राप्तकर। कलिपुरुष के दर्शन से तेरे छलना के स्वरूप को अवधिज्ञान से पूर्व में ही जानकर श्री धर्मदास गणि नाम के तेरे पिता ने तुझे बोधित करने के लिए यह उपदेश माला ग्रंथ बनाया है। कहा है. जो राजा आदेश देता है उस वाक्य को प्रकृति से स्वभाव से सामान्य प्रजाजन मस्तक पर चढ़ाकर स्वीकार करते है। उसके समान गुरुवाक्य को भी हाथ जोड़कर सुनना चाहिए। साधुओं के सम्मुख जाना, वंदन करना, नमस्कार करना, सुखशाता पूछना, इस प्रकार के कार्यों से चिरकाल से संचित पापकर्म भी एक क्षण में क्षय होते है। और भी आप को हजारों लाखों योनियों में दुर्लभ दुष्पाप यह मानव भव मिला और जाति जन्म, वृद्धावस्था आयुष्य की हानि, मरण, प्राणवियोग रूप इस समुद्र से भी - 19
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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