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श्री उपदेश माला गाथा ५३६-५४०
उपदेशमाला का फल
उपदेश माला का फल उवएसमालमेयं, जो पढइ सुणइ कुणइ वा हियए ।
सो जाणइ अप्पहियं, नाऊण सुहं समायरइ ॥५३६॥
शब्दार्थ- जो पुरुष इस उपदेश माला का अध्ययन करता है, श्रवण करता है और हृदय में धारण करता है, अथवा उसका परम रहस्य समझकर उसके अर्थ का चिन्तन-मनन करता है; वह इहलोक और परलोक दोनों का आत्महित जान लेता है और स्वहित का मार्ग जानकर सुख-पूर्वक उस पर अमल करता है एवं अंत में मोक्षसुख प्रास करता है ।।५३६।।
धंतमणिदामससिगयणिहिपयपढमक्खराण नामेणं(भिहाणेण) ।
उवएसमालपगरणमिणमो रइअं हियट्ठाए ॥५३७॥
शब्दार्थ - धंत, मणि, दाम, ससि, गय और णिधि इन ६ शब्दों के आदि के अक्षरों को जोड़ने से निष्पन्न नाम वाले 'धर्मदासगणि' ने स्वपरहित के लिए यह 'उपदेशमालाप्रकरण' बनाया है ।।५३७॥ जिणवयणकप्परुक्खो, अणेगसुत्तत्थसालि(सत्थत्थसाल)वित्थिन्नो ।
तवनियमकुसुमगुच्छो, सोग्गइफलबंधणो जयइ ॥५३८॥
शब्दार्थ - अनेक सूत्र और अर्थ रूपी शाखाओं से विस्तीर्ण, तप-नियम रूपी फूलों के गुच्छों वाला और देव-मनुष्यादि सुगति या मोक्षगति रूपी उत्तम फल देने वाला द्वादशाङ्गी जिनवचन रूप कल्पवृक्ष विजयी हो ।।५३८।।
जोग्गा सुसाहुवेरग्गियाण, पलोग-पट्ठियाणं च । संदिग्गपक्खियाणं, दायव्वा बहुस्सुयाणं च ॥५३९॥
शब्दार्थ - यह उपदेश माला वैराग्यवान सुसाधुओं के, परलोक का हित साधन करना चाहने वालों के और संविग्न-पाक्षिकों तथा बहुश्रु-तजनों के ही पठनपाठन-योग्य जानकर उन्हीं को ही देनी (बतानी या सिखानी) चाहिए। क्योंकि यह उत्तम ग्रंथ विद्वानों को ही आनंद देने वाला है, मूों को नहीं।।५३९।।
उपसंहार इय धम्मदासगणिणा, जिणवयणुवएसज्जमालाजो । मालव्य विविहकुसुमा, कहिआ य सुसीसवग्गस्स ॥५४०॥ शब्दार्थ - जैसे विविध फूलों से माला गूंथी जाती है, वैसे ही श्रीधर्मदासगणि
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