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उपदेशमाला के पठन-श्रवण का फल श्री उपदेश माला गाथा :४१-५४४ ने जिनवचनोपदेश के अक्षर रूपी फूलों को चुन-चुनकर यह 'उपदेश माला' बनायी और अपने सुशिष्यवर्ग के सामने समय-समय पर उपदेश के रूप में कही है।।५४०।।
संतिकरी बुड्डिकरी, कल्लाणकारी, सुमंगलकरी य । होइ कहगस्स परिसाए, तह य निव्याणफलदाई ॥५४१॥
शब्दार्थ - यह उपदेशमाला व्याख्यान देने वाले (उपदेशक) वक्ता और व्याख्यान सुनने वाले श्रोताजनों के क्रोधादि विकारों को शांत करने वाली, उनमें ज्ञानादि गुणों की वृद्धि करने वाली स्व-पर कल्याण कारिणी तथा इस लोक में धन या शिष्यादि वैभव रूप और परलोक में वैमानिक देवों के ऋद्धि-समृद्धि-सुखादि मंगल को देने वाली अथवा परलोक में समस्त जन्म-मरण-कर्मादि बंधनों से छुटकारा दिलाकर निर्वाण फल दायिनी है। अर्थात्-इस ग्रंथ के व्याख्याता और श्रोता दोनों को कथन-श्रवण से उत्तम फल मिलता है ।।५४१।।
इत्थ समप्पड़ इणमो, माला उवएसपगरणं पगयं ।
गाहाणं सव्वाणं, पंचसया चेव चालीसा ॥५४२॥
शब्दार्थ - 'इस प्रकार प्राकृतभाषा में रचित माला के रूप में प्रस्तुत उपदेश-प्रकरण यहाँ संपूर्ण कर रहे हैं। इसकी सब मिला कर ५४० गाथाएँ है'।।५४२।। (दो गाथाएँ प्रक्षिस समझनी चाहिए)
जावय लवणसमुद्दो, जावय नक्वत्तमंडिओ मेरू । ताव य रइया माला, जयंमि थिरथावरा होउ ॥५४३॥
शब्दार्थ - जब तक संसार में लवण-समुद्र मौजूद है और जब तक नक्षत्रों से सुशोभित मेरु-पर्वत विद्यमान है, तब तक धर्मदासगणि विरचित यह उपदेश माला । शाश्वत पदार्थ के समान स्थायी रहे ।।५४३।।
____ अक्खरमत्ताहीणं, जं चिय पढियं अयाणमाणेणं । तं खमह मज्झ सव्वं, जिणवयणविणिग्गया वाणी ॥५४४॥
शब्दार्थ - इस उपदेश माला ग्रंथ में मेरे से अज्ञानवश अनजान में कोई अक्षर या मात्रा न्यूनाधिक पढ़ी या कही गयी हो तो जिन भगवान् के मुखकमल से निसृत वाणी भगवती श्रुतदेवी मेरी समस्त भूलों को क्षमा करें ।।५४४।। || इति श्री धर्मदासगणिविरचित उपदेशमालापकरण समाप्त ॥
॥ श्रोतृवाचकयोः शुभं भूयात् ॥ .
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