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अनंत संसारी
श्री उपदेश माला गाथा ५३२-५३५ धम्मत्थकाममोक्नेसु, जस्स भायो जहिं-जहिं रमइ ।
येरग्गेगंतरसं न इमं सव्वं सुहावेइ ॥५३२॥ शब्दार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में से जिस-जिस जीव का भाव (अभिप्राय) जिस-जिस पुरुषार्थ में होता है, वह उसी में रमण करता है। अर्थात् जीवों की भावना (रुचि) विभिन्न पदार्थों में विविध प्रकार की होती है। इसीलिए एकांत वैराग्यरस-शांतरस से परिपूर्ण यह उपदेशमाला सभी जीवों को सुखदायिनी प्रतीत नहीं होती। परंतु जो शांतरसार्थी आत्मार्थी जन हैं, उन्हें सारी उपदेशमाला वैराग्यरसपोषिका होने से अत्यंत सुखदायिनी प्रतीत होगी ।।५३२।।
__ संजमतवालसाणं, वेरग्गकहा न होड़ कण्णसुहा ।
संविग्गपक्खियाणं, होज्ज व केसिंचि नाणीणं ॥५३३॥
शब्दार्थ - १७ प्रकार के संयम और १२ प्रकार के तप के आचरण में जो प्रमादी हैं, उनके कानों को यह वैराग्यकथा सुखदायिनी नहीं लगती। यह तो संविग्नपाक्षिक किन्हीं ज्ञानी पुरुषों को ही सुहाती है। उन्हीं कानों को यह उपदेशमाला रुचिकर-सुखकर लगती है, सभी को नहीं ।।५३३॥ ...
सोऊण पगरणमिणं, धम्मे जाओ न उज्जमो जस्स । न य जणियं वेरग्गं, जाणिज्ज अणंतसंसारी ॥५३४॥
शब्दार्थ - वैराग्यरस से परिपूर्ण इस उपदेशमाला-प्रकरण को सुनकर भी जिसके दिल में धर्माचरण में पुरुषार्थ करने का उल्लास नहीं पैदा होता, और न पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्ति पैदा होती है, समझो, वह अनंतसंसारी है। मतलब यह है कि अनंतसंसारी जीव को बहुत उपदेश देने पर भी वैराग्य पैदा नहीं होता।।५३४।।
कम्माण सुबहुयाणुवसमेण उवगच्छई इमं सम्म । कम्ममलचिक्कणाणं, बच्चइ पासेण भण्णंतं ॥५३५॥
शब्दार्थ - जब किसी जीव के कर्मों का अत्यधिक मात्रा में उपशम होता है, तब ही वह उपदेशमाला के तत्त्वज्ञान को भलीभांति प्रास कर सकता है। परंतु जिन व्यक्तियों पर निकाचित कर्मों की चिकनाहट मजबूती से चिपकी हुई है, वे गुरुकर्मा जीव इस ग्रंथ के बार-बार कहने-सुनने पर भी इसके परमार्थ को नहीं समझ सकते; आचरण की बात तो दूर रही ।।५३५।।
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