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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५२८-५३१ उपदेश माला किसे दे? मुनि भी शास्त्रज्ञान से लाभालाभ जानकर अल्पदोष-बहुलाभ (आय) वाला कार्य यतनापूर्वक करता है ।।५२७।।। __ आमुक्क जोगिणो च्चिय, हवइ थोवा वि तस्स जीवदया । संदिग्गपक्वजयणा, तो दिट्ठा साहुयग्गस्स ॥२८॥ शब्दार्थ - जिसने संयमयोग्य प्रवृत्ति (व्यापार) सर्वथा छोड़ दी है, उस साधु के हृदय में यदि थोड़ी-सी भी जीवदया हो तो वह मोक्षाभिलाषी संविग्नसाधुओं का पक्षपाती बनकर अपनी साधुता को बचा सकता है। क्योंकि तीर्थंकरों ने उस संविग्नपक्ष की यतना बतायी है और उसे साधुवर्ग में प्रामाणिक मानी है ।।५२८।। किं मूसगाण अत्थेण? किं वा कागाण कणगमालाए? । मोहमलखवलिआणं, किं कज्जुवएसमालाए ॥५२९॥ शब्दार्थ - चूहों को धन से क्या मतलब? अथवा कौओं को सोने की माला से क्या प्रयोजन? इसी प्रकार मोह-मिथ्यात्व आदि कर्मरूपी मल से मलिन बने हुए जीवों को इस 'उपदेशमाला' से क्या लाभ? अर्थात् गुरुकर्मी जीवों के लिए यह उपदेशमाला किसी भी काम की नहीं है। लघुकर्मी जीवों के लिए ही यह हितकारिणी है ॥५२९।। चरणकरणालसाणं, अविणयबहुलाण सययऽजोगमिणं । न मणि सयसाहस्सो, आबज्ाइ कोच्छभासस्स ॥५३०॥ शब्दार्थ - जो चरण और करण के पालन में आलसी हैं और जिनके जीवन में प्रचुरमात्रा में अविनय भरा हुआ है, उनके लिए भी यह 'उपदेशमाला' सदा अयोग्य है। क्योंकि चाहे लाख रुपये का मणि हो फिर भी वह जैसे कौए के गले में बांधने योग्य नहीं होता, इसी प्रकार इस बहुमूल्य उपदेशरत्नमाला का भी ऐसे अयोग्य के पल्ले बांधना अनुचित है ।।५३०।। नाऊण करयलगयाऽऽमलं व, सब्भावओ पहं सव्यं । धम्ममि नाम सीइज्जइ त्ति, कमाई गुरुयाइं ॥५३१॥ शब्दार्थ-भावार्थ - हथेली पर रखे हुए आंवले के समान सद्भाव से अथवा सत्यबुद्धि से ज्ञानादिमय मोक्षमार्ग को स्पष्ट रूप से जानकर भी यह जीव जो धर्माचरण करने से घबराता-कतराता है, उसमें उसके भारी कर्मों को ही कारणभूत समझना चाहिए। अर्थात् वह जीव गुरुकर्मा होने से ज्ञानावरणीयादि कर्मों की प्रचुरता के कारण जानता हुआ भी धर्माराधना नहीं कर सकता। लघुकर्मी जीव को ही धर्माचरण में स्वाभाविक रुचि या प्रीति होती है ।।५३१।। - 413
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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