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जिनाज्ञा आराधक जमाली की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ५००-५०३ आखिर वे संयम के भार (दायित्व) को छोड़ देते हैं। इस तरह वे अपने ही हाथों से अपने धर्मबीज को नष्ट कर देते हैं ।।४९९।।
आणं सव्वजिणाणं, भंजड़ दुविहं पहं अड़क्कतो । आणं च अइक्कंतो, भमइ जरामरणदुग्गंमि ॥५००॥
शब्दार्थ - पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी तो भगवद् कथित दोनों ही मार्गों का उल्लंघन करके समस्त जिनेश्वरों की आज्ञा का भंग करता है। और जिनाज्ञा-भंग के फलस्वरूप वह जन्म, जरा और मृत्यु रूप अत्यंत दुर्गम अनंत संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है ।।५००।।
जइ न तरसि धारेउं, मूलगुणभरं सउत्तरगुणं च ।
मुत्तूण तो तिभूमि, सुसावगत्तं वरतरागं ॥५०१॥
शब्दार्थ - इसीलिए अय भव्यजीव! यदि समिति आदि उत्तरगुणों के भारसहित पंचमहाव्रतादि मूलगुणों के भार को धारण करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है तो बेहतर यही है कि अपनी जन्मभूमि, विहारभूमि और दीक्षाभूमि इन तीनों प्रदेशों को छोड़कर तथा साधुवेश का त्याग करके सुश्रावकत्व अंगीकार कर लो। साधुवेश में रहकर दंभ, मायाचार और पापाचरण करने के बजाय कपटरहित होकर श्रावकधर्म का अंगीकार करना कहीं अच्छा है ।।५०१।।
अरहंतचेइआणं, सुसाहूपूयारओ दढायारो । सुस्सायगो वरतरं, न साहुवेसेणं चुअधम्मो ॥५०२॥
शब्दार्थ - अरिहंत भगवान् के चैत्यों की पूजा और उत्तम साधुओं के सत्कार-सम्मान रूप पूजा में रत होकर निष्कपटता पूर्वक दृढ़ाचार वाला सुश्रावक होना श्रेयस्कर है, परंतु साधुवेश में रहकर धर्मभ्रष्ट जीवन बिताना अच्छा नहीं। क्योंकि आचारभ्रष्ट होकर साधुवेश में रहने से वेश धारण करने के सिवाय और कुछ भी सुफल मिलने वाला नहीं ।।५०२।।
सव्वं ति भाणिऊणं, विरई खलु जस्स सब्धिया नत्थि ।
सो सव्वविरड़वाई, चुक्कड़ देसं च सव्यं च ॥५०३॥
शब्दार्थ - 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' (मैं समस्त सावध मन-वचनकाया के व्यापारों (प्रवृत्तियों) का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ, इस प्रकार से सर्वथा त्याग रूप महाप्रतिज्ञा लेने के बाद जिस साधक के जीवन में पंड्जीवनिकाय के रक्षण 1. 'वरतर नेयं पाठान्तर। 406