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श्री उपदेश माला गाथा ४६७-४६६
धर्मों के भेदों की व्याख्या शब्दार्थ - दुष्काल के समय बोने के लिए बीजों का बिलकुल अभाव होने पर उस देश का राजा दूसरे द्वीपों से बीज मंगवाकर कृषकजनों को बोने के लिए देता है। राजा के द्वारा बोने के लिए दिये हुए उन सारे बीजों को कितने ही किसान खा जाते हैं; कई कृषक उन बीजों में से आधे बो देते हैं, आधे खा जाते हैं और कुछ किसान अपने खेत में उन बीजों को बो देने के बाद ऊगकर फसल पूरी पकने से पहले ही उस डर से कि राजसेवकों को पता लगा तो वे इस अनाज को ले जायेंगे; उस अनाज को झटपट घर ले जाने के लिए कूट कर दाने निकालने लगते हैं। परंतु तब भी राजसेवकों को पता लग जाता है और वे उन्हें अपराधी समझकर पकड़ लेते हैं और बहुत तंग करते हैं ।।४९५-४९६।।
अब इन दोनों गाथाओं में वर्णित दृष्टांत का उपसंहार करते हैं
राया जिणवरचंदो, निब्बीयं धम्मविरहिओ कालो । खिताई कम्मभूमी, कासगवग्गो य चत्तारि ॥४९७॥
शब्दार्थ - इसी प्रकार यहाँ राजा जिनेश्वरचन्द्र (तीर्थकर देव) हैं। धर्माचरण रूपी बीज से रहित काल दुष्काल के समान निर्बीज काल है। १५ कर्मभूमियों धर्मबीज बोने के लिए उत्तम क्षेत्र (खेत) हैं; तथा कृषकवर्ग में चार प्रकार के संसारी जीव हैं१. असंयत, २. संयत, ३. देशविरति (संयतासंयत) और ४. पार्श्वस्थ ।।४९७।। ।
' असंजएहिं सव्यं, खइयं अद्धं च देसविरएहिं ।
साहूहिं धम्मबीयं, युत्तं नीअं च निप्फतिं ॥४९८॥
शब्दार्थ - अरिहंतदेव रूपी राजा ने चार प्रकार के कृषकवर्ग को धर्मरूपी बीज बोने के लिए दिये। उनमें से असंयत अर्थात् व्रत नियम आदि से सर्वथा रहित व्यक्ति तो उन सब धर्मबीजों को बोने के बदले खा गये; जो देशविरति श्रावक (पांच अणुव्रतादि के धारक) थे, उन्होंने आधे धर्मबीज बोए और आधे खा गये; जो संयतसुसाधु-थे, उन्होंने सर्वविरति धर्मरूपी सारे बीजों को बोदिये, अर्थात् उनका पूर्णरूपेण सदुपयोग किया ।४९८।।।
जे ते सव्वं लहिउँ, पच्छा खुटुंति दुब्बलधिईया । तवसंजमपरितंता, इह ते ओहरियसीलभरा ॥४९९॥
शब्दार्थ- और जो पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधु हैं, वे सर्वविरति रूप धर्मबीज को प्राप्त तो कर लेते हैं, लेकिन बाद में अधीर और कमजोर दिल के बनकर तप-संयम (साधुधर्म) के पालन से ऊब जाते हैं; रातदिन खेद करते रहते हैं और
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