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धर्मों के भेदों की व्याख्या
__ श्री उपदेश माला गाथा ४६२-४६६ शब्दार्थ - इस जगत् में मोक्ष जाने के लिए जन्म, जरा और मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त श्री जिनेश्वरों ने दो ही मार्ग बताये हैं- 'एक सुश्रमण धर्म, दूसरा सुश्रावक धर्म ॥४९१।।
भावच्चणमुग्गविहारया य, दव्यच्चणं तु जिणपूया । भावच्चणाया भट्ठो, हविज्ज दव्यच्वणुज्जुत्तो ॥४९२॥
शब्दार्थ - साधुजीवन अंगीकार करके उग्र विहार (महाव्रतादि का उत्कृष्टरूप से मन,वचन, काया से सत्यतापूर्वक पालन) करना जिनेश्वर भगवान् की भावपूजा है, और जिनभगवान् के बिम्ब की विविध द्रव्यों से पूजा करना द्रव्यपूजा है। यदि.कोई भावार्चना (भावपूजा) से भ्रष्ट हो रहा हो तो उसे श्रावकधर्म अंगीकार करके द्रव्यार्चना में जुट जाना चाहिए ।।४९२।।
जो पुण निरच्चणो च्चिअ, सरीरसुहकज्जमित्ततल्लिच्छो । तस्स न य बोहिलाभो, न सुग्गई नेय परलोगो ॥४९३॥
शब्दार्थ - परंतु जो व्यक्ति द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की अर्चनाओं से रहित है; यानी न तो वह साधुधर्म का ही पालन करता है और न श्रावकधर्म का ही; किन्तु रातदिन शरीर को आराम तलब बनाने में ही जुटा रहता है, अपने शरीर सुख का ही लिप्सु बना रहता है; उसे आगामी जन्म में बोधिलाभ (शुद्ध धर्म का बोध प्रास) नहीं होता, न उसे सद्गति (मोक्षगति) प्रास होती है और न उसे परलोक ही अच्छा (मनुष्यत्व या देवत्व के रूप में) मिलता है ।।४९३।।
अब द्रव्यपूजा की अपेक्षा भावपूजा की श्रेष्ठता बताते हैं
कंचणमणिसोवाणं, थंभसहस्सूसिअं सुवण्णतलं । जो करिज्ज जिणहरं, तओ वि तव-संजमो अहिओ ॥४९४॥
शब्दार्थ - अगर एक व्यक्ति सोने और चन्द्रकान्त आदि मणियों से निर्मित सोपानों वाला, हजारों स्तंभो वाला विशाल और सोने के तलघर वाला जिनालय बनवाता है; परंतु दूसरा भगवान् की आज्ञानुसार तप-संयम (सर्वविरति चारित्र) का पालन करता है तो वह उससे भी बढ़कर है। यानी द्रव्यपूजा से भावपूजा श्रेष्ठ है।।४९४।।
निब्बीए दुब्भिक्ख्ने, रन्ना दीवंतराओ अन्नाओ । आणेऊणं बीअं, इह दिन्नं कासवजणस्स ॥४९५॥ केहिंवि सव्यं खड़यं, पइन्नमन्नेहिं सव्वमद्धं च ।
युत्तंग्गयं च केई, खित्ते खोटेंति संतत्था ॥४९६॥ युग्मम् 404