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श्री उपदेश माला गाथा ५०४-५०७
आज्ञा भंग में मिथ्यात्व रूप विरति अथवा प्राणातिपात आदि से विरति सर्वांशों में नहीं है, फिर भी जो अपने आपको सर्वविरतिधर कहता है, तो इस प्रकार मिथ्या प्रचार करने वाला साधक देशविरति श्रावकधर्म और सर्वविरति साधुधर्म इन दोनों धर्मों से चूकता है; यानी दोनों से भ्रष्ट होता है ।।५०३।।
जो जहवायं न कुणड़, मिच्छदिट्ठी तओ हु को अन्नो । . बुड्ढेइ य मिच्छत्तं, पस्स संकं जणेमाणो ॥५०४॥
शब्दार्थ - जो साधक स्वयं महाप्रतिज्ञा लेकर खुद को 'साधु हूँ ऐसा' बताता है, मगर अपनी कथनी के अनुसार करणी नहीं करता; यानी तदनुसार सर्वविरति रूप चारित्र का भलीभांति पालन नहीं करता; तब उससे बढ़कर मिथ्या-दृष्टि और कौन होगा? बल्कि वह स्वयं मिथ्यादृष्टि बनकर दूसरों में शंका पैदा करके मिथ्यात्व को बढ़ाता है ।।५०४।।
आणाइ च्चिय चरणं, तभंगे जाण किं न भग्गंति? ।
आणं च अइक्कंतो, कस्साएसा कुणइ सेसं ॥५०५॥
शब्दार्थ - जिन भगवान् की आज्ञा का पालन ही वास्तव में चारित्र है। जिनाज्ञा-भंग कर देने पर समझ लो, उसने क्या भंग नहीं किया? यानी जिनाज्ञाभंग करते ही उसने एक तरह से चारित्र आदि सभी गुणों का सर्वथा भंग कर दियो! क्योंकि जिनाज्ञा का उल्लंघन करने वाला साधक बाकी के धर्मानुष्ठान या धर्माचरण किसकी आज्ञा से करता है? जिनाज्ञा के बिना धर्मानुष्ठान या धर्मक्रियाराधन आदि करना केवल विडंबना ही है; वे अनुष्ठान मोक्षफलदायी नहीं होते ।।५०५।।
__ संसारो अ अणंतो, भट्ठचरितस्स लिंगजीविस्स ।
पंचमहव्ययतुंगो, पागारो भिल्लिओ जेण ॥५०६॥
शब्दार्थ - जिस अभागे व्यक्ति ने पंचमहाव्रत रूपी उच्च किलों को तोड़ डाले हैं, वह चारित्रभ्रष्ट मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि वेष केवल आजीविका (उदरपूर्ति) के लिए रखता है। उससे कोई मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य सिद्ध नहीं होता; बल्कि वह अनंतकाल तक संसार परिभ्रमण करता है।।५०६।।
न करेमि त्ति भणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो पावं ।
पच्चक्रवमुसावाई, माया नियडीपसंगो य ॥५०७॥
शब्दार्थ - जो साधक 'न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि' (मन-वचन-काया से हिंसा आदि पाप न करूँगा, न कराऊंगा, न करते हुए दूसरे
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