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श्री उपदेश माला गाथा ४७०-४७२
उपदेशानुसार आचरण का उपदेश शब्दार्थ-भावार्थ- और इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ जीव उदरपीड़ा से, पानी में डूबकर, जहर खाकर, सांप के काटने से, पेचिश रोग से, किसी शस्त्र के प्रहार से, अग्नि में जलकर या अत्यंत भय अथवा अत्यंत हर्षावेश से सहसा हृदयगति रुक जाने से एक ही मुहूर्त में एक देह को छोड़कर दूसरा देह पा लेता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसा अधर्मी जीव किसी न किसी कारणवश सहसा चल बसता है;
और हाथ मलता ही रह जाता है; उसके मन के मंसूबे धरे रह जाते हैं। इसीलिए ऐसा समय आय उससे पहले ही आत्महित के लिए धर्मसाधना कर लेनी चाहिए, ताकि बाद में पछताने का मौका न आये ।।४६९।।
- कत्तो चिंता सुचरियतवस्स, गुणसुट्टियस्स साहुस्स? । ____ सुग्गइगमपडिहत्थो, जो अच्छड़ नियमभरियभरो ॥४७०॥
शब्दार्थ - जिस साधु ने भलीभांति तप-संयम की आराधना की है और महाव्रतादि गुणों में जो सुस्थित है, उसे किस बात की चिन्ता हो सकती है? क्योंकि सुगतिगमन तो व्रत-नियम आदि के परिपालन में समर्थ, धर्म-धन से परिपूर्ण ऐसे साधु के हाथ में ही होता है ।।४७०।।
साहति य फुड वियडं, मासाहससउणसरिसया जीवा ।
न य कम्मभारगरुयत्तणेण तं आयरंति तहा ॥४७१॥
शब्दार्थ - संसार में लोग जितना और जैसा स्पष्ट रूप से उपदेश झाड़ते हैं, उतना और वैसा वे स्वयं आचरण नहीं करते; क्योंकि वे अपने दुष्कर्मों के भार से बोझिल बने हुए हैं। ऐसे परोपदेश कुशल, किन्तु आचरण दुर्बल मासाहस नामक पर्वतीय पक्षी की तरह हैं; जो बाद में पछताते हैं ।।४७१।। इसका दृष्टांत ग्रंथकार स्वयं आगे की गाथा में दे रहे हैं
बग्घमुहम्मि अइगओ, मंसं दंतंतराउ कड्डइ । 'मा साहसं' ति जंपड़, करेड़ न य तं जहाभणियं ॥४७२॥
. शब्दार्थ-भावार्थ - जंगल में एक बाघ मुंह फाड़े सोया था। उसकी दाढ़ों में मांस का कुछ अंश लगा हुआ था। 'मासाहस' नाम का एक पक्षी रोजाना उसके मुंह में घुसकर मांस निकाल लाता और पेड़ पर बैठकर खाता था। फिर वह बोलता'मा साहसं कुरु', 'मा साहसं कुरु' (साहस मत करो, साहस मत करो)। परंतु जैसा वह कहता था, उसके अनुसार स्वयं करता नहीं था। वह खुद बार-बार बाघ के मुंह में से मांस निकालने का साहस किया करता था। दूसरे पक्षियों ने उसे ऐसा करने से रोका, मगर वह नहीं माना। एक दिन जब बाघ सोया हुआ था तब वह मांस लोलुप
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