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________________ उपदेशानुसार आचरण का उपदेश श्री उपदेश माला गाथा ४७३-४७४ मासाहस पक्षी उसके मुंह में घुसकर मांस निकालने लगा। इतने में सहसा बाघ जाग गया और उस पक्षी को अपने मुंह में दबोचकर उसका काम तमाम कर डाला। इसी तरह जो व्यक्ति दूसरों को उपदेश तो बहुत देते हैं, मगर स्वयं उस पर अमल नहीं करते; उनकी भी अंत में मासाहस पक्षी के जैसी ही दुर्दशा होती है ।।४७२।। ... परियट्टिऊण गंथत्थवित्थरं निहसिऊण परमत्थं । तं तह करेह जह तं, न होड़ सव्वंपि नडपढियं ॥४७३॥ शब्दार्थ-भावार्थ- ग्रंथ (सूत्र) के अर्थों का विस्तार से बार-बार दोहराकर घोटकर याद करके और उसके परमार्थ को अच्छी तरह समझकर भी भारी कर्मा साधक उसके अनुसार आचरण नहीं करता; इससे उसकी मुक्ति रूप कार्यसिद्धि नहीं होती। बल्कि उसका सारा सूत्रार्थ कण्ठस्थ करना नट के द्वारा रंगमंच पर बोलने के समान होता है। जैसे कुशल नट पहले नाटक के पाठ को अच्छी तरह घोटकर कण्ठस्थ करके फिर रंगमंच पर ज्यों का त्यों बोल देता है, परंतु उसके जीवन में वह बिलकुल उतरा नहीं होता; वैसे ही बहुत-से शास्त्र या ग्रंथ कण्ठस्थ कर लेने पर भी जिसके जीवन में जरा भी नहीं उतरे होते; उसके लिए वे व्यर्थ व दिमाग के बोझ हैं।।४७३।। पढइ नडो वेग्गं, निविज्जिज्ज य बहुजणो जेण । पढिऊण तं तह सढो, जालेण जलं समोयरइ ॥४७४॥ शब्दार्थ-भावार्थ - नट रंगमंच पर आकर वैराग्य की ऐसी बातें करता है कि उससे अनेक लोगों को वैराग्य हो जाता है; मगर उस पर अपनी बातों का कोई असर नहीं होता, वैराग्य का रंग नहीं चढ़ता। इसी प्रकार सूत्रार्थ का भलीभांति अध्ययन करके मायावी (शठ) साधक भी वैराग्य का उपदेश देकर अनेक लोगों को वैराग्य पैदा कर देता है, मगर उस पर वैराग्य (धर्म से विपरीत बातों से विरक्त होने) का रंग नहीं चढ़ता। जैसे मछलियाँ पकड़ने वाला अपने जाल को लेकर स्वयं जल में प्रवेश करता है, उसे फैलाता है; और मछलियों को फंसा लेता है। वैसे ही मायावी साधक भी वैराग्य की बातों की अपनी मायाजाल फैलाकर भोले लोगों को उसमें फंसा लेता है। मगर ऐसा करने से उस मायापूर्ण चेष्टा वाले साधक का शास्त्राध्ययन भी उसका कल्याणकर्ता व मोक्षदाता नहीं होता; बल्कि निरर्थक और कर्मबंध का कारण होता है। अतः मायाजाल छोड़कर सरलभाव से शास्त्रोचित प्रवृत्ति करने से ही कल्याण हो सकता है ।।४७४।। 398
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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