SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्याग एवं उपदेशानुसार आचरण श्री उपदेश माला गाथा ४६६-४६६ किसी प्रकार का विषाद मत कर, अकर्मण्य बनकर मत बैठ; झटपट इस दुर्लभ सामग्री से लाभ उठा ।।४६५।। पंचिंदियत्तणं माणुसत्तणं, आरिए जणे सुकुलं । साहुसमागम-सुणणा, सद्दहणाऽरोगपव्यज्जा ॥४६६॥ शब्दार्थ - इस संसार में सर्वप्रथम पांचों इन्द्रियों का मिलना दुर्लभ है। उसके बाद मनुष्यत्व (मनुष्यजन्म तथा मानवता) प्राप्त करना दुर्लभ है। उसके मिलने पर भी मगध आदि आर्यदेश में जन्म होना कठिन है। फिर उत्तमकुल में पैदा होना दुष्कर है। इतना हो जाने पर भी सुसाधुजनों का समागम मिलना सुलभ नहीं। सुसाधु-समागम मिलने पर भी धर्मश्रवण करना दुर्लभ है। उसके बाद उस पर दृढ़ श्रद्धा होना मुश्किल है। श्रद्धा तो है, मगर शरीर निरोग नहीं तो प्रव्रज्या नहीं ली जा सकती। इसीलिए शरीर स्वस्थता और उसके बाद मुनि दीक्षा लेना अत्यंत दुर्लभ है ।।४६६ ।। ___ आउ संयिल्लंतो, सिढिलंतो बंधणाइं सव्वाई। देहट्टिइं च मुयंतो, झायड़ कलुणं बहुँ जीवो ॥४६७॥ शब्दार्थ – आयु जब पूर्ण होने आती है, तब शरीर के सारे अंगोपांग ढीले हो जाते हैं, अवयवों के जोड़ लड़खड़ा जाते हैं, और जब इस शरीर को छोड़ने लगता है, तब धर्माचरण से रहित जीव करुणस्वर से बहुत पश्चात्ताप करता है कि "हाय! मैंने अपने शरीर के स्वस्थ रहते, जवानी में सर्वोत्तम जिनप्रणीत धर्म-(शासन) प्राप्त करके भी मैंने अज्ञान, मोह और प्रमादवश विषय-लोलुपता में फंसकर अपनी अमूल्य जिंदगी खो दी, मगर आत्महितकर धर्मसाधना नहीं की! अब मेरी क्या दशा' होगी?" इस प्रकार वह शोकसागर में डूबा रहता है ।।४६७।। इक्कं पि नत्थि जं सुटु, सुचरियं जह इमं बलं मज्झ । __को नाम दढक्कारो, मरणंते मंदपुण्णस्स ॥४६८॥ शब्दार्थ - मैंने एक भी ऐसे सुकृत (पुण्य-शुभ-कर्म) का आचरण अच्छी तरह नहीं किया, जिसके बल पर मैं आगामी जन्म में सुखी हो सकू। प्रास उत्तम सामग्री को मैंने निरर्थक खो दी। अतः अब मुझ अभागे (हीनपुण्य) का मृत्यु के अंतिम क्षणों में कौन-सा मजबूत सहारा है? ।।४६८।। सूल-विस-अहि-विसूईय-पाणीय-सत्थग्गिसंभमेहिं च । देहतरसंकमणं, करेइ जीवो मुहुत्तेण ॥४६९॥ 1. तुलना : लोहाय नावं जलधौ भिनत्ति, सूत्राय वैडूर्यमणिं दृणाति । सच्चन्दनं ह्योषति भस्मनेऽसौ, यो मानुषत्वं नयतीन्द्रियार्थे । 396
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy