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श्री उपदेश माला गाथा ४६२-४६५ त्याग एवं उपदेशानुसार आचरण कामोत्तेजक विषय भोगों का सेवन करके दूसरों में अरति (अरुचि) पैदा करके अपना मनोविनोद करता है; यानी दूसरों को दुःखित करके अपनी आत्मा को संतुष्ट करता है; वह अपने रागद्वेषादि विकारों के कारण संसार में परिभ्रमण करता है ।।४६१ ।। आरंभपावनिरया, लोइअरिसिणो तहा कुलिंगी य ।
दुहओ चुक्का नवरं, जीवंति दरिद्दजियलोयं ॥ ४६२ ॥
शब्दार्थ - पृथ्वीकाय आदि ६ काय के प्राणियों का मर्दन करने वाले, भोजन बनाने में ही रचे-पचे रहने वाले लौकिक ऋषि, तापस, त्रिदण्डी आदि कुलिंगी ( वेषधारी) साधु, साधु- धर्म और श्रावक-धर्म दोनों से भ्रष्ट होकर धर्म रूपी धन से बिलकुल दरिद्र होकर इस संसार में केवल उदर पूर्ति के लिए जीते हैं ।।४६२ ।।
सव्यो न हिंसियव्यो, जह महिपालो तहा उदयपालो । न य अभयदाणवड़णा, जणोयमाणेण होयव्यं ॥ ४६३॥
शब्दार्थ - अभयदानव्रती साधु को संसार के किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। राजा हो या रंक दोनों पर उसे समदृष्टि रखनी चाहिए। किसी ने उस पर प्रहार किया हो या अपमान किया हो, उससे बदला लेने की भावना नहीं रखनी चाहिए। सर्वत्र अमृतमयी वात्सल्य-दृष्टि रखने का अभ्यास करना चाहिए। । ४६३।।
पाविज्जइ इह वसणं, जणेण तं छगलओ असतो त्ति । न य कोइ सोणियबलिं करेड़ वग्घेण देवाणं ॥ ४६४ ॥
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शब्दार्थ-भावार्थ - क्षमाशील पुरुष का संसार में बेसमझ लोग उपहास किया करते हैं कि 'यह तो बेचारा बकरी-सा कमजोर है। इसे कोई भी दबा सकता है।' इस अपमान से प्रताड़ित होकर भी वह अपनी क्षमा नहीं छोड़ता । 'देवों को बाघ के खून की बलि नहीं दी जाति, बेचारे गरीब बकरे की ही बलि दी जाती है। इसीलिए बलवान को कोई नहीं मार सकता; स्वार्थी लोगों के इस प्रकार के वचन सुनकर भी क्षमाधारी वे समतावान पुरुष अपनी उत्तम वृत्ति को नहीं छोड़ते। वे तो क्षमावृत्ति में ही स्थिर रहते हैं । । ४६४।।
बच्चड़ खणेण जीवो, पित्तानिलधाउ सिंभखोभम्मि ।
उज्जमह मा विसीयह, तरतमजोगो इमो दुलहो ॥ ४६५ ॥
शब्दार्थ - भव्यजीव ! यह जीव वात, पित्त और कफ तथा सप्तधातुओं के विकार से बना हुआ है; इनके क्षुब्ध होते ही यह एक पल में नष्ट हो जाता है। यह सोचकर क्षमा आदि दस धर्मों के पालन में उद्यम कर। क्योंकि धर्म साधन योग्य तुम्हें जैसी भी शरीरादि सामग्री न्यूनाधिक रूप में मिली है, वह बड़ी ही दुर्लभ है। इसीलिए
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