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________________ आराधक को उपदेश श्री उपदेश माला गाथा ४६०-४६१ करना हो तो अब उनके वचन सत्य मानो और इस असत्य प्ररूपणा को छोड़ो।" सुदर्शना ढंक की बातों से बड़ी प्रभावित हुई और उसने भगवान् के वचन को सत्य स्वीकार किया। तत्पश्चात् उसने जमाली के पास आकर स्पष्ट कह दिया-"मैं प्रत्यक्ष रूप से असत्य तुम्हारे मत को नहीं मानती; मैं तो भगवान् के मत को ही प्रत्यक्ष व्यवहार संगत और सत्य मानती हूँ।" इस पर जमाली अपने हठाग्रह से टस से मस न हुआ। कर्मगति विचित्र है। सुदर्शना साध्वी भगवान् के पास आकर अपनी असत्य प्ररूपणा को तिलांजलि (मिथ्या दुष्कृत) देकर शुद्ध चारित्र-पालन करने लगी। वह केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में पहुँची। मगर जमाली मिथ्या प्ररूपणा करने के कारण अनेक दिनों तक कष्ट सहकर अंत में १५ दिनों का अनशन करके आयुष्य पूर्ण होने पर जिनवचन की विराधना के फलस्वरूप किल्बिषिक नामक नीची जाति का देव बना। वहाँ से आयु पूर्ण कर चिरकाल तक वह संसार की विविध योनियों में भटकता रहेगा। इसीलिए श्री जिनेश्वर देव के वचनों का उत्थापन करके जैसे जमालि ने दीर्घकाल तक संसार-परिभ्रमण में वृद्धि की और इस लोक में भी निन्दा का भागी बना; वैसे ही यदि कोई जिनवचन की विराधना करेगा, वह भी इस लोक में निन्दा का भाजन और परलोक में दुर्गति का अधिकारी व चिरकाल तक संसार परिभ्रमण करने वाला बनेगा। इसीलिए वीतरागी निःस्पृह महापुरुषों के वचन को यथातथ्य रूप में स्वीकार करना चाहिए; यही इस कथा का सारांश है ॥४५९।। इंदियकसायगारवमएहिं, सययं किलिट्ठपरिणामो । कम्मघणमहाजालं, अणुसमयं बंधई जीयो ॥४६०॥ शब्दार्थ-भावार्थ - स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों के विषय, क्रोधादि चार कषाय, रसादि तीन गारव (गर्व), जाति आदि आठ मद रूप प्रमाद के आचरण से अत्यंत मलिन परिणामी बना हुआ संसारी जीव प्रतिक्षण कर्म रूपी बादलों के महा-जाल को बांधता रहता है। जैसे बादलों का महा-जाल चंद्रमा की चांदनी को ढक देता है, वैसे ही कर्म रूपी महाजाल आत्मा के ज्ञानादिगुणों को ढक देता है। अतः कर्मबंध के महाजाल के कारण रूप प्रमादाचरण का त्याग करना चाहिए ।।४६०।। पपरिवायविसाला, अणेगकंदप्पविसयभोगेहिं । . . संसारत्था जीवा, अरइविणोअं करितेवं ॥४६१॥ शब्दार्थ - दूसरों की निन्दा करने में आसक्त संसारी जीव अनेक प्रकार के 394
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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