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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४५६ जिनाज्ञा आराधक जमाली की कथा अपने हठाग्रह पर अड़ा रहा। जमाली के इस रवैये को देखकर कई शिष्य उसे जिनवचनों का उत्थापक और स्वकल्पित मत स्थापक तथा अयोग्य जानकर छोड़कर भगवान् महावीर की सेवा में चले गये। . जमाली धीरे-धीरे स्वस्थ हुआ। विहार करते-करते एक बार वह चंपानगरी पहुँचा; वहाँ भगवान् महावीर स्वामी उन दिनों बिराजमान थे। जमाली उनके पास पहुँचा और लोगों को सुनाते हुए उनसे सगर्व कहने लगा- "मैं तुम्हारे दूसरे शिष्यों की तरह छद्मस्थ नहीं हूँ, अपितु केवलज्ञानी हूँ।" इस पर श्री गौतम स्वामी ने उससे पूछा- "यदि तुम केवलज्ञानी हो तो बताओ, यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत?" जीव शाश्वत है या अशाश्वत?" यह सुनते ही जमाली चकरा गया और सच्चा उत्तर देने में असमर्थ होने के कारण काफी देर तक सोचता रहा। तब श्री गौतमस्वामी ने कहा- "जमाली! तुम तो अपने को केवली कहते हो! फिर चुप क्यों हो गये? प्रश्न का सही उत्तर तो दो! अगर तुम खुद केवली होते हुए भी इस जरा-से प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते तो लो, मैं छमस्थ होते हुए भी तुम्हें इसका उत्तर देता हूँ, सुनो-लोक दो प्रकार का हैशाश्वत और अशाश्वत। द्रव्यतः यह लोक शाश्वत (नित्य) है, और पर्याय से अर्थात् उत्सर्पिणी आदि काल की दृष्टि से यह अशाश्वत है। तथा जीव भी द्रव्य की दृष्टि से नित्य है, किन्तु देव-मनुष्य-नरक-तिर्यंच-गति-रूप पर्याय की दृष्टि से यह अनित्य है।" परंतु जमाली उस उत्तर को ठुकराकर चुपचाप वहाँ से चला गया; बल्कि वह चंपानगरी से भी विहार करके श्रावस्ती पहुँच गया। ___ सुदर्शना साध्वी ने जब जमाली के बारे में सुना तो वह भी उसी के मतपक्ष में हो गयी। संयोगवश सुदर्शना साध्वी भी उसी नगरी में भगवान् महावीर के उपासक ढंक नामक कुंभार की उद्योगशाला में ठहरी हुई थी। वह भी जब जमाली के मत की प्ररूपणा करने लगी तो ढंक कुंभार को बड़ा आश्चर्य हुआ कि "भगवान् महावीर की पुत्री होकर भी गृहस्थपक्षीय पति के मोहवश असत्य प्ररूपणा कर रही है। इसे किसी भी युक्ति से समझा दूं तो ठीक रहेगा।" अतः उसने प्रथम प्रहर के समय स्वाध्याय करती हुई साध्वी सुदर्शना की चादर पर एक अंगारा डाला। इससे उस पर दो-तीन छेद हो गये। यह देखकर साध्वी एकदम बोल उठी-"श्रावक! यह तुमने क्या किया? मेरी सारी चादर जला दी।" ढंक ने अच्छा मौका समझकर कहा- "साध्वीजी! ऐसा मत कहिए! जलते हुए भी जल गया कहना, यह तो भगवान् का मत है। तुम्हारा मत तो पूरा कपड़ा जल जाने के बाद ही जल गया कहने का है। इसीलिए भगवान् के वचनों के अनुसार व्यवहार 393
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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