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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३३७-३३६ विनय, तप, इंद्रिय दमन, औषधोपचार, शुद्ध प्ररूपक का वर्णन पर दो घड़ी तक न बैठे। ४. स्त्रियों की आँखें, मुख, हृदयादि अंगोपांगों का रागबुद्धि से निरीक्षण न करें। ५. चारित्र-ग्रहण करने के पूर्व गृहस्थाश्रम में की हुई कामक्रीड़ा का कदापि स्मरण न करे। ६. स्त्रियों का विरह-विलाप आदि कान देकर न सुने। ७. गले तक लूंस-ठूसकर अति-भोजन न करे। ८. बहुत प्रकार का स्निग्ध पौष्टिक, गरिष्ठ, स्वादिष्ट भोजन सदा न करें और ९. शरीर को स्नान, विलेपन, शृंगार आदि से न सजाएँ; ताकि उससे खुद को या दूसरे को कामोत्तेजना न जागे। इस तरह इन ९ दूषणों से दूर रहकर मुनि ब्रह्मचर्य का यथार्थ पालन करे ।।३३४-३३५-३३६ ।। गुज्झोरुवयण कक्खोरु अंतरे, तह थणंतरे दटुं । साहरइ तओ दिठिं, न बंधड़ दिट्ठिए दिद्धिं ॥३३७॥ शब्दार्थ - साधुपुरुष स्त्री के गुह्य स्थान, (गुप्तांग), जांघ, मुख, कांख वक्षस्थल और स्तनों आदि में से किसी भी अंग पर कदाचित् दृष्टि पड़ जाय तो उसी समय अपनी दृष्टि वहाँ से हटा लेते हैं। स्त्री की दृष्टि से अपनी दृष्टि नहीं मिलाते और किसी कार्यवश मुनि स्त्री से बात भी करते हैं तो नीचा मुख रखकर ही ।।३३७।। अब स्वाध्याय के संबंध में कहते हैं सज्झाएण पसत्थं झाणं, जाणइ य सव्यपरमत्थं । सज्झाए बटुंतो, खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥३३८॥ शब्दार्थ - शास्त्र-संबंधी, वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप पंचविध स्वाध्याय करने वाला मुनिवर्य प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाता है तथा स्वाध्याय से वह सारे परमार्थ (तत्त्व या रहस्य) को अच्छी तरह से जान लेता है। स्वाध्याय करने वाले मुनि को क्षण-क्षण वैराग्य प्रास होता रहता है। अर्थात् राग-द्वेष रूपी विष दूर होने से निर्विष हो जाता है ।।३३८।। उड्डमह तिरियलोए (नरया), जोड़सयेमाणिया य सिद्धी य । सब्यो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पच्चक्खो ॥३३९॥ शब्दार्थ - स्वाध्याय-वेत्ता मुनि के ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक इन तीनों लोकों का स्वरूप, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्क, वैमानिक देवों का निवास और सिद्धिस्थान, मोक्ष और सर्वलोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्षवत् हो जाता है। चौदह रज्जूप्रमाण लोक और इससे भिन्न अपरिमित अलोक का स्वरूप भी स्वाध्याय के बल से मुनि जान जाता है ।।३३९।। _- 351
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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