SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय, तप. इंद्रिय दमन, औषधोपचार, शुन्द प्ररूपक का वर्णन श्री उपदेश माला गाथा ३४०-३१३ जो निच्चकालतवसंजमुज्जओ, न वि रेड़ सज्झायं । अलसं सुहसील जणं, न वि तं ठायेइ साहुपए ॥३४०॥ शब्दार्थ - जो साधु निरंतर तप और पांच आश्रव के निरोध रूप संयम में उद्यत रहता हो, लेकिन अध्ययन-अध्यापन रूपी स्वाध्याय नहीं करता या उससे विमुख रहता है, उस प्रमादी, सुखशील मुनि को लोग साधु मार्ग में साधु रूप में नहीं मानते। क्योंकि 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया इन दोनों से ही मोक्ष प्राप्त होता है। अतः दोनों की आराधना करनी चाहिए ।।३४०।। अब विनय का वर्णन करते हैंविणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।। विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो ॥३४१॥ शब्दार्थ - विनय ही शासन अर्थात् जिनभाषित द्वादशांगी में अथवा संघ में मूल है। विनयगुण से अलंकृत साधु ही संयमी होता है। विनय से रहित साधु के धर्म ही कहाँ और तप ही कहाँ? अर्थात् जैसे मूल के बिना शाखा रह नहीं सकती, वैसे ही विनय के बिना धर्म (संयम) और तप दोनों नहीं टिक सकते ।।३४१।। विणओ आवहड़ सिरिं, लहइ विणीओ जसं च कित्तिं च । न क्याइ दुव्विणीओ, सज्जसिद्धिं समाणेइ ॥३४२॥ शब्दार्थ - विनयी बाह्य-आभ्यंतर लक्ष्मी को प्राप्त करता है, विनयवान पुरुष जगत में यश और कीर्ति पाता है। परंतु विनयरहित-दुर्विनित पुरुष अपने कार्य में कभी सिद्धि (सफलता) प्राप्त नहीं कर सकता। यह जानकर सर्व गुणों के वशीकरण विनयगुण की आराधना अवश्य करनी चाहिए ।।३४२।। अब तप का वर्णन करते हैंजह-जह खमइ सरीरं, धुवजोगा जह जहा न हायति । कम्मक्खओ य विउलो, विवित्तया इंदियदमो य ॥३४३॥ शब्दार्थ - जितना-जितना शरीर सहन कर सके; शरीर का बल क्षीण न हो और प्रतिलेखना, प्रतिक्रमण आदि नित्यनियम सुखपूर्वक हो सके, उतना-उतना इच्छा-निरोधयुक्त तप करना चाहिए। ऐसा तप करने से विपुल कर्मों का क्षय होता है। यह आत्मा शरीर से भिन्न है तथा यह शरीर आत्मा से भिन्न है; ऐसी आध्यात्मिक भावना जागृत होने से इन्द्रियों का भी दमन अनायास हो जाता है ।।३४३।। 1. सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न सीयंति।। 352
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy