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नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ स्वाध्याय, विनय का वर्णन श्री उपदेश माला गाथा ३३१-३३६
जाईए उत्तमाए, कुले पहाणंमि रूपमिस्सरियं । बलविज्जाय तवेण य, लाभमएणं व जो जिसे ॥३३१॥ संसारमणवयग्गं, नीयट्ठाणाइं पायमाणो उ । भमइ अणंतं कालं, तम्हाउ मए विवज्जिज्जा ॥३३२॥ युग्मम्
शब्दार्थ-भावार्थ - 'जो मनुष्य अपनी उत्तमजाति' उच्च कुल, मनोहर रूप, महान ऐश्वर्य, अतिबल, अधिक विद्या, तप करने की शक्ति और प्रचुर धन व सुखसामग्री प्राप्त करके अभिमान में चूर होकर अन्य जीवों की निन्दा या बदनामी करता है, उन्हें नीचा दिखाने की चेष्टा करता है, वह चारगति रूप अनंत संसार में जाति आदि की हीनता प्राप्त करके अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है। इसीलिए बुद्धिमान पुरुष अभिमान का सर्वत्र त्याग करते हैं ।।३३१-३३२।।
सुट्ठ वि जई जयंतो, जाईमयाईसु मुज्झई जो उ । .. सो मेयज्जरिसी नह, हरिएसबलो व्य परिहाइ ॥३३३॥
शब्दार्थ - यदि कोई साधु एक ओर अत्यंत यतनापूर्वक दुष्कर चारित्र की आराधना करता हो, परंतु दूसरी ओर जाति आदि आठ मदों में चूर रहता हो तो उसे मैतार्य मुनि और हरिकेशीबल साधु की तरह नीच जाति में जन्म लेना पड़ता है।।३३३।। इन दोनों मुनियों की कथा पहले आ गयी है।
___ अब ब्रह्मचर्य की नौ प्रकार की गुप्ति का वर्णन करते हैंइत्थिपसुसंकिलिटुं, वसहिं इत्थीकहं च वज्जंतो । इत्थिजणसंनिसिज्जं, निरुवणं अंगुवंगाणं ॥३३४॥ पुव्यरयाणुस्सरणं, इत्थीजणविरहरूवविलयं च । अइबहुय अइबहुसो, विवज्जतो य आहारं ॥३३५॥ वज्जतो अ विभूसं, जइज्ज इह बंभचेरगुत्तीसु । साहू तिगुत्तिगुत्तो, निहुओ दंतो पसंतो य ॥३३६॥ - त्रिभिर्विशेषकम्
शब्दार्थ - मन, वचन और काया के योगों (व्यापारों) का निरोध करने वाला, शांत, इन्द्रियों का दमन करने में तत्पर, कषाय को ज्ञान बल से जीतने वाले मुनिराज को ९ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति का आचरण करके ब्रह्मचर्य की रक्षा सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। वे ९ प्रकार की गुप्तियां इस प्रकार हैं-१. ब्रह्मचारीव्यक्ति, स्त्री, पशु, नपुंसक आदि कामांधजीवों से रहित निर्दोष एकांत स्थान में रहे। २. स्त्री-संबंधी रूप-शृंगार की कथा न करे अथवा केवल स्त्रियों के सम्मुख धर्मकथा भी न करे। ३. जिस स्थान या आसन आदि पर स्त्री बैठी हो उस स्थान या आसनादि
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