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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३२६-३३० इन्द्रियों का सदुपयोग, मद एवं नव वाड का वर्णन मोह-रागबुद्धि से उनके सम्मुख न देखें; न मूर्छित हो, अपितु मुनि-मार्ग में रहकर धर्माचरण करने में सदा उद्यम करें ।।३२८।। निहयाणिहयाणि य इंदियाणि, थाएहऽणं पयत्तेणं । अहियत्थे निहयाई, हियज्जे पूयणिज्जाई ॥३२९॥ शब्दार्थ-भावार्थ - 'जब इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों पर मुनिवर राग और द्वेष नहीं होने देते, तभी उनकी वे इन्द्रियां वशीभूत हुयी कही जायगी। अन्यथा, इन्द्रियों के अपने-अपने विषयों में दौड़ते रहने से या उनकी प्रवृत्तियों को बिलकुल रोककर निश्चेष्ट कर देने मात्र से वे वशीभूत हुई नहीं कहलाती। उस समय कदाचित् कुछ वश में होती हैं, कुछ नहीं होती। अतः मुनियो! प्रयत्नपूर्वक इन्द्रियों को वश में करो।' कहने का मतलब यह है कि जिस समय आँखें स्त्रियों के सुंदर अंगोपांगों को देखने के लिए लालायित हो रही हों, कान मधुर, अश्लील शब्दों को सुनने के लिए उद्यत हों, नाक सुगंध लेने के लिए आतुर हो, हाथ-पैर कोमल-कोमल स्पर्श के लिए ललचा रहे हों, जीभ मीठे-खट्टे आदि रसों को चखने के लिए उतारू हो रही हो, यानी इन्द्रियां अहितमार्ग में जाने को उद्यत हों, उस समय तुरंत उन्हें रोककर हितमार्ग में लगाने का प्रयत्न करें। अर्थात्-आँखों को भगवान् के शुभदर्शन में, कानों को उनकी वाणी श्रवण करने में तथा अन्य इन्द्रियों को भी इस प्रकार के शुभ भद्र और कल्याण में लगाएँ। क्योंकि इंद्रियों को अहितकर मार्ग कार्य में लगाने पर निन्दा होती है और दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है; जब कि अहितमार्ग से रोककर प्रत्यनपूर्वक हितकर कार्य में लगाने पर यश-कीर्ति बढ़ती है और संसार के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा अविनाशीपद प्रास करती है ।।३२९ ।। अब अभिमान के संबंध में कहते हैंजाइ-कुल-रुव-बल-सुय-तव-लाभिस्सरिय-अट्ठमयमत्तो । - एयाई चिय बंधड़, असुहाई बहुँ च संसारे ॥३३०॥ ' शब्दार्थ-भावार्थ - ब्राह्मण आदि जातियों का मद, कुल-वंश (खानदान) का अभिमान, शरीरबल का घमंड, रूप-सौभाग्य आदि का गर्व, शास्त्रज्ञान का मद, तपस्या का गर्व, द्रव्यादि प्राप्त होने का अभिमान और ऐश्वर्य-सम्पन्नता का अहंकार; इन ८ मदों में जो मतवाला हो जाता है, वह अवश्य ही संसार में अनेक बार अशुभजाति आदि का संबंध करके उसके फल स्वरूप नीचजाति (गोत्र), नीचकुल, अल्पबल, खराब रूप, अल्पज्ञान, तप करने में दुर्बलता, अल्पलाभ, दरिद्रता आदि प्राप्त करता है ।।३३०।। == 349
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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