________________
हास्य, रति, गारव आदि से होने वाले अनर्थ श्री उपदेश माला गाथा ३१८-३२१
अब अरति का वर्णन पढ़िए
उब्वेयओ य अरणामओ य, अरमंतिया य अरई य । कलमलओ अ अणेगग्गया य, कत्तो सुविहियाणं? ॥३१८॥
शब्दार्थ - सुविहित साधु धर्म-समाधि से उद्विग्न (चलित) होना, पंचेन्द्रिय के विषयों में मन को बार-बार लगाना, धर्मध्यान में विमुखता, चित्त में अत्यंत उद्वेग, विषयों में मन की व्यग्रता और अनेक प्रकार के चपल विचार करना कि मैं यह खाऊं, यह पीऊं, यह पहनूं इत्यादि मानसिक संकल्पों का हेतु अरति है। सुविहित साधु को वह हो ही कैसे सकती है? ।।३१८।।
अब शोक का वर्णन करते हैं
सोगं संतावं अधिई च, मन्नुं च वेमणस्सं च ।
कारुण्ण-रुन्नभावं, न साहुधम्ममि इच्छंति ॥३१९॥ - शब्दार्थ - अपने बारे में मृत्यु का वहम करना, अतिगाढ़ संताप करना कि अरे! मैं किस तरह इस गाँव को या ऐसे उपाश्रय को छोड़ सकूँगा? अधीरता से ऐसा विचार करना, इन्द्रियों का रोध अथवा विकलता, मन की विकलता अर्थात् अत्यंत शोकजन्य क्षोभवश आत्महत्या का विचार करना, सिसकसिसककर रोना अथवा फूट-फूटकर रोना, यह सब शोक का परिवार है। अपने धर्म में स्थिर साधु इसमें से एक की भी इच्छा नहीं करते ।।३१९।।
अब भय का वर्णन करते हैं
भय-संखोह-विसाओ, मग्गविभेओ विभीसियाओ य । परमग्गदसणाणि य, दड्ढधम्माणं कओ हुति? ॥३२०॥
शब्दार्थ - कायरता के कारण अकस्मात् भयभीत होना, क्षोभ व विषाद, चोरादि को देखकर भाग जाना, दीनता रखना, मार्ग को छोड़कर सिंहादि भय से अन्य मार्ग को पकड़ना, भूतप्रेत आदि से डर जाना (ये दो जिनकल्पी साधु के लिए हैं) भय से अथवा स्वार्थ से अन्य धर्म के मार्ग का प्रशंसात्मक शब्दों में कथन करना, दूसरे के डर से गलत मार्ग बताना। ये सभी भय के ही प्रकार हैं। दृढ़धर्मी साधुओं को ये भय कैसे सता सकते हैं? वे तो भय-रहित निर्भय रहते हैं ।।३२०।।
अब जुगुप्सा का वर्णन करते हैं
कुच्छा चिलीणमलसंकडेसु, उव्येवओ अणिटेसु । चक्नुनियत्तणमसुभेसु, नत्थि दब्येसु दंताणं ॥३२१॥
शब्दार्थ - अत्यंत मलिन पदार्थों को देखकर जुगुप्सा (नफरत) करना, मृत 346