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श्री उपदेश माला गाथा ३२२-३२४
गौरव, ईद्रियवशीभूत के फल शरीर, मलिन शरीर अथवा गंदे कपड़े आदि देखकर सिहर उठना, उद्विग्न होना, कीडियों के द्वारा भक्षण किये हुए और मृत कुत्ते आदि अशुभ वस्तु को देखकर दृष्टि को फेर लेना, इत्यादि सब जुगुप्सा के ही प्रकार हैं। जुगुप्सा साधुओं के पास भी नहीं फटकनी चाहिए ।।३२१।।
एवं पि नाम नाऊण, मुज्झियव्यं ति नूण जीवस्स । फेडेऊण ण तीरइ, अइबलिओ कम्मसंघाओ ॥३२२॥
शब्दार्थ - पूर्वोक्त कषायों, नोकषायों आदि को प्रसिद्ध जिनवचन से भलीभांति जानकर भी क्या जीव का मूढ़ बने रहना योग्य है? जरा भी योग्य नहीं। तो फिर किसलिए जीव मूढ़ होता है? उसके उत्तर में कहते हैं-जीव उन कषायों को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता। उसका कारण है-आठ कर्मों के समुदाय का अति बलवान होना। मतलब यह है कि कर्म के परवश होकर यह जीव अकार्य करने में तत्पर हो जाता है ।।३२२।।
जह-जह बहुस्सुओ सम्मओ य, सीसगणसंपरियुडो य । अविणिच्छिओ य समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥३२३॥
शब्दार्थ - जितने-जितने जिसने शास्त्र सुने है, या पढ़े है, जो बहुत-से अज्ञानी लोगों द्वारा सम्मान्य है, जिसने शिष्य परिवार भी बहुत बढ़ा लिया है, किन्तु सिद्धांत के बारे में हमेशा डांवाडोल रहता है, दृढ़ निश्चयी बनकर सिद्धांत पर अटल नहीं रहता, न उसे कोई अनुभव है, न शास्त्रों का रहस्य ही जानता है तो उसे सिद्धांत (धर्म) का शत्रु समझना। क्योंकि ऐसे अनिश्चयी साधक के कारण धर्म-शासन की निंदा या बदनामी होती है। तत्त्वों का विज्ञ यदि अल्पश्रुत (थोड़े शास्त्र पढ़ा) हो तो भी आराधक है; किन्तु बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों को पढ़ा हुआ) होने पर भी वह तत्त्वज्ञ न हो तो वह मोक्षमार्ग का आराधक नहीं, अपितु विराधक है ।।३२३॥
अब ऋद्धिगौरव (गर्व) के विषय में कहते हैं___पवराई वत्थपायासणोवगरणाई, एस विभवो मे । अवि य महाजणनेया, अहं ति अह इड्ढिगारविओ ॥३२४॥
शब्दार्थ - ममता में मूढ़ बना हुआ साधु ये श्रेष्ठ वस्त्र, पात्र, आसन और उपकरण आदि मेरी संपत्ति है, तथा मैं महाजनों, बड़े-बड़े धनाढ्यों, अग्रगण्यों तथा साधु-साध्वियों आदि का नेता हूँ, ऐसा विचार करने वाला ऋद्धिगौरव से युक्त कहलाता है। अथवा उसकी प्रासि न हो तो उस ऋद्धि की इच्छा करना भी ऋद्धिगौरव कहलाता है ।।३२४।। अब रसगौरव के बारे में कहते हैं
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