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________________ रणसिंह का चरित्र श्री उपदेश माला है, चाहे जो हो इस प्रकार विचारकर व्यग्र चित्त से रथ में बैठी। सेवक ने रथ चलाया। कमलवती ने पूछा-उपवन कितनी दूर है? सेवक ने कहा-कुमार ने आपको पिता के घर छोड़ आने की आज्ञा दी है। कमलवती ने कहा--कुमार ने बिना विचारे काम किया है, बाद में उनको पश्चात्ताप होगा। मुझे मेरे कर्मों का फल भुगतना ही है। कहा गया है किकृतकर्मक्षयो नास्ति, कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्व्यं, कृतं शुभाशुभं ॥ शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य भुगतना पडता है। सैकडों-कोटि उपाय करने पर भी कृत कर्म का क्षय नही होता। सारथी! तुम अपना रथ वापिस मोड लो। अब पर तेरा प्रयोजन नहीं है। मैं इस प्रदेश से परिचित हूँ, यह पाडलीखण्डपुर नगर समीप का उपवन है। मैं सुखपूर्वक यहाँ से अपने घर लौट जाऊँगी। सारथी रोते हुए नमस्कार कर कहने लगा-स्वामिनी! आप साक्षात् शील से अलंकृत लक्ष्मी हो। मुझ अधर्मी, दुष्कर्म करनेवाले को धिक्कार है, जो आपको इस प्रकार अरण्य में छोड़े जा रहा हूँ। कमलवती ने कहाहे सत्पुरुष। यह तेरा अपराध नहीं है। जो सेवक है वह स्वामी आज्ञा के अनुसार कार्य करता ही है। मुझ मंदभागी का एक वचन अवश्य कहना कि क्या आपने अपने कुलोचित कार्य किया है? कमलवती को वटवृक्ष के नीचे छोड़कर सारथी वापिस नगर लौटा। वह कमलवती विलाप करती हुई कहने लगी-विधाता! तूंने यह कैसा कठोर कार्य किया है? अकाल में ही तूंने वज्रपात समान पति-विरह का दुःख . क्यों दिया? मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? सब कुछ सहन कर सकती हूँ परंतु कलंक आरोपण से पति ने मुझे घर से निकाला है, यह बड़ा दुःखदायी है। फिर एकाकी वहाँ रहकर क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? हे मात! तूं यहाँ आकर दुःखदावाग्नि से जलती अपनी पुत्री की रक्षाकर! अथवा मत आना, मेरा दुःख देखकर माता के हृदय में आघात लगेगा। पूर्व कुमारी अवस्था में मैंने पिताजी को दुःख दिया था। अब यह जानकर वे और भी दुःखी होंगे। अनेक प्रकार से विलाप करती हुई उसने मन में सोचा-पति को मेरे शील पर संपूर्ण विश्वास था। किसी वैरी ने अथवा किसी भूत-राक्षस आदि ने यह इंद्रजाल स्वरूप दिखाकर पति के हृदय में शंका उत्पन्न की है। कलंक सहित पिता के घर जाना उचित नही है। जटिका के प्रभाव से पुरुष वेष धारणकर यही रूक जाती हुँ कारण कि बदरीफल की उपमा वाले स्त्री के शरीर को देखकर कौन भोगना नहीं चाहता? कहा है तटाकवारि तांबुलं, स्त्रीशरीरं च यौवने । को न पातुं न भोक्तुं नो, विलोकयितुमुत्सकः ।। 10
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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