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________________ शशिप्रभ राजा की कथा श्री उपदेश माला गाथा २५६ सविनय निवेदन किया- "बन्धु! यह संसार असार है। इन क्षणिक विषय-सुखों का भी कोई भरोसा नहीं है। इसीलिए मैं इन सब विषय-सुखों व उनके साधनों को छोड़कर साधु-धर्म अंगीकार करके तप-संयम में उद्यम करूँगा, जिससे स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त कर सकू।" सुनते ही शशिप्रभ ने कहा- "भैया! किसी धूर्त के बहकावे में आ गये दिखते हो। यही कारण है कि जो विषय-सुख अभी प्राप्त हैं, अपने हाथ में हैं, उन्हें ठुकराकर तुम भविष्य के अप्राप्तसुखों को पाने की इच्छा कर रहे हो! तुम विचार-मूढ़ मालूम होते हो। अरे! भविष्य के सुख किसने देखे है? और कौन जानता है, धर्म का फल मिलेगा या नहीं?" सूरप्रभ ने शांतभाव से कहा-"भाई! आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? धर्म का फल अवश्य ही मिलता है; क्योंकि पुण्य और पाप का फल तो प्रत्यक्ष प्राप्त होता हुआ हम देखते हैं। देखिए, संसार में एक जीव रोगी है, एक निरोगी है, एक सुरूप है, दूसरा कुरूप, एक धनवान है, दूसरा निर्धन, एक भाग्यशाली है, एक अभागा है, ये और इस प्रकार के सब अंतर पुण्य-पाप के ही फल हैं।" इस प्रकार का तात्त्विक उपदेश देने पर भी शशिप्रभ को गुरुकर्मा होने के कारण जरा भी प्रतिबोध न लगा। आखिर सूरप्रभ ने वैराग्यभाव से अकेले ही मुनि दीक्षा ग्रहण की और तप संयम की आराधना करके आयुष्य पूर्ण कर वह ब्रह्मदेव लोक में देव बना। __ शशिप्रभ राजा आसक्ति पूर्वक राज्य संचालन करता हुआ विषय सुखों में, रागरंग में, ऐशोआराम में, बढ़िया खाने-पीने में, शरीर को मल-मलकर नहाने-धोने और वस्त्राभूषणों से सजाने-संवारने में ही रात-दिन डूबा रहता था। वह अपनी जिंदगी में कुछ भी त्याग, नियम, व्रत, प्रत्याख्यान, तप, जप आदि न कर, शरीर सुखासक्ति की भावना में ही मरकर तीसरी नरक का नारकीय जीव बना। सूरप्रभ देव ने अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म के भाई को नरक में स्थित देखा। उसे बड़ा अफसोस हुआ। वह पूर्व जन्म के भ्रातृ स्नेह-वश नरकभूमि में पहुँचा और अपने नारक बने हुए भाई को उसके पूर्वजन्म का स्वरूप बताया। साथ ही यह भी कहा--"भाई! पूर्व जन्म में मैंने तुम्हें बहुत समझाया, लेकिन तुम बिलकुल न माने। इसीलिए अब तुम इस नरक में पैदा हुए हो।" देव की बात सुनकर शशिप्रभ नारक ने अपने पूर्व जन्म का स्वरूप विभंगज्ञान से जाना तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उसने वेदना भरे स्वर में कहा--"भाई! मैंने पूर्व जन्म में शरीर के लालन-पालन और विषय सुखों में आसक्त होकर धर्म की बिलकुल आराधना नहीं की। अब तो मैं नरक में पड़ा हुआ क्या कर सकता हूँ! तुम पूर्वजन्म की भूमि में जाकर मेरे उस शरीर की यातना दो, ठोकरें मारमारकर उसकी भर्त्सना करो ताकि मैं किसी भी तरह से कर्म का बोझ हलका करके 324
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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