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श्री, उपदेश माला गाथा २५७-२६०
शशिप्रभ राजा की कथा - आचारहीनता का त्याग
इस नरक से निकल सकूं || २५६ ||" इस पर सूरप्रभ देव ने कहाको तेण जीवरहिएण, संपयं जाइएण होज्ज गुणो । जइऽसि पुरा जायंतो, तो नरए नेव निवडतो ॥ २५७॥ शब्दार्थ - भाई ! पूर्व जन्म के निर्जीव (मृत) शरीर को अब लातें मारने, पीड़ा देने व विडम्बित करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? यदि तुमने पूर्व जन्म में ही उस शरीर को तप-संयमादि में लगाकर थोड़ी-सी भी पीड़ा दी होती तो नरक से भी तुम्हें लौटने का मौका आता अथवा नरक में जाने का अवसर ही न आता! पर अब क्या हो सकता है? अब तो अपने किये हुए कर्मों का फल तुम्हें भोगना ही पड़ेगा । इनसे छुटकारा दिलाने में अब कोई भी समर्थ नहीं है ।। २५७ ।।
इस प्रकार नरक में स्थित अपने भाई शशिप्रभ के जीव को प्रतिबोध देकर सूरप्रभ देव अपने स्थान पर लौट आया। हे भव्यजीवो! शशिप्रभ के इस दृष्टांत को
जानकर -
जावाऽऽउ सावसेसं, जाय य थोयो वि अत्थि वयसाओ । ताय करिज्ज ऽप्यहियं मा ससिराया व्व सोइहिसि ॥ २५८ ॥
शब्दार्थ - जहाँ तक अपनी आयु शेष हो, जहाँ तक अपने शरीर और मन में थोड़ा-सा भी उत्साह है, वहाँ तक आत्महितकारी तप-संयमादि का अनुष्ठान कर लेना चाहिए; अन्यथा बाद में शशिप्रभ राजा की तरह पछताने का मौका आयेगा।। २५८।
छित्तूण वि सामण्णं, संजमजोगेसु होइ जो सिढिलो । पडड़ जई वयणिज्जे, सोयइ अ गओ कुवत्तं ॥२५९॥
शब्दार्थ - जो साधक साधु जीवन (श्रमण धर्म) ग्रहण करके संयम की साधना में शिथिल (प्रमादी) बन जाता है; वह इस लोक में निन्दा का पात्र होता है; परलोक में भी कुदेवत्व या दुर्गति प्राप्त कर वह पछताता है। शिथिलाचार दोनों लोकों में हानिकारक है। इसीलिए शिथिलाचार का त्याग करना चाहिए ।। २५९ ।।
सोच्चा ते जियलोए, जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चाण वि ते सुच्चा, जे नाऊणं वि न करंति ॥ २६०॥ शब्दार्थ - जो मनुष्य अपने अविवेक या प्रमाद के कारण जिनवचनों को जानते नहीं, इस जीवलोक में उनकी दशा शोचनीय होती है; लेकिन इनसे भी बढ़कर अति-शोचनीय दशा उन लोगों की होती है, जो जिनवचनों को जानते - बूझते हुए भी प्रमादवश तदनुसार अमल में नहीं लाते। वस्तुतः जानबूझकर भी प्रमादादिवश जो व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता, उसकी अंत में बड़ी दुर्दशा और दुर्गति होती है ।। २६० ।।
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