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श्री उपदेश माला गाथा २५४-२५६
शशिप्रभ राजा की कथा
में चारित्र की शुद्धि करना अत्यंत दुष्कर हो जाता है। परंतु यदि कोई चारित्र की विराधना हो जाने के तुरंत बाद ही प्रमाद को छोड़कर विशुद्ध रूप से चारित्रपालन करने में उद्यम करता है तो वह कदाचित् अपनी शुद्धि कर सकता है ।। २५३ ।। उज्झिज्ज अंतरे च्चिय, खंडिय सबलादओ व्व होज्ज खणं । ओसन्नो सुहलेहड, न तरिज्ज व पच्छ उज्जमिउं ॥ २५४ ॥ शब्दार्थ - परंतु जो साधक साधुधर्म अंगीकार करने के बाद बीच में व्रतभंग करके चारित्र को खंडित कर देता है तथा प्रतिक्षण अशुद्ध भावों के वश अनेक प्रकार के अतिचारों (दोषों) का सेवन करके चारित्र को कलुषित (मलिन) बनाता रहता है; उस शिथिल और सुख लम्पट साधु का पुनः संयम की शुद्धि के लिए उद्यम करना दुष्कर है ।। २५४।।
अवि नाम चक्कवट्टी, चइज्ज सव्वं पि चक्कवट्टिसुहं । न य ओसन्नविहारी, दुहिओ ओसन्नयं चयइ ॥ २५५ ॥ शब्दार्थ - ६ खण्ड (राज्य) का अधिपति चक्रवर्ती अपने चक्रवर्ती जीवन के सभी सुखों को छोड़ने को तैयार हो सकता है, लेकिन शिथिलविहारी दुःखित होते रहने पर भी अपनी शिथिलाचारिता को छोड़ने को तैयार नहीं होता। क्योंकि चीकने (निकाचित) कर्मों से लिप्त होने के कारण वह अपनी आचार भ्रष्टता को छोड़ नहीं
सकता ।। २५५ ॥
नरयत्यो ससिराया, बहु भणड़ देहलालणासुहिओ । पडिओ मि भए भाग्य !, तो मे जाएह तं देहं ॥२५६॥
शब्दार्थ - नरक में निवास करते हुए शशिप्रभ राजा ने अपने भाई से बहुत कुछ कहा - "भाई! मैं पूर्वजन्म में शरीर के प्रति अत्यंत लाडप्यार करके सुख-लंपट बन गया था, इसी कारण इस जन्म में नरक में पड़ा हूँ। अतः तुम मेरे पूर्वजन्म के उस देह को खूब यातना दो, उसकी भर्त्सना करो ।। २५६ ।। "
प्रसंगवश यहाँ शशिप्रभ राजा की कथा दी जा रही है
शशिप्रभ राजा की कथा
कुसुमपुर नगर में जितारि नामक राजा राज्य करता था। उसके दो पुत्र थेशशिप्रभ और सूरप्रभ। अपने बड़े पुत्र शशिप्रभ को राजपद तथा छोटे पुत्र सूरप्रभ को युवराजपद देकर राजा धर्माराधना में तत्पर हो गया। एक बार नगर में चतुर्ज्ञानधारक श्री विजयघोषसूरि पधारें। उनके दर्शन - वंदनार्थ दोनों भाई गयें सूरप्रभ को संसार से विरक्ति हो गयी। प्रतिबुद्ध सूरप्रभ ने घर आकर अपने बड़े भाई से
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