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________________ शिथिलता छोड़नी दुष्कर श्री उपदेश माला गाथा २५३ मन ही मन निश्चय किया- "ठीक है, इस समय मेरी कोई सेवा नहीं करता; मैं स्वस्थ हो जाने पर इन सबकी खबर लूंगा। एक-एक को चुन-चुनकर सजा दूंगा । " यों आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान के भयंकर परिणामों से उसी रात को मरकर वह तैतीस सागरोपम की आयुवाला सप्तम नरक का अधिकारी हुआ। सच है, जो दुर्लभ चारित्ररत्न को पाकर विषय सुख के कीचड़ में पड़ता है; वह कण्डरीक के समान दुर्गति ही प्राप्त करता है। इधर पुण्डरीक ने कण्डरीक को राज्य सौंपकर उसी समय स्वयं चातुर्याम (भगवान् अरिष्टनेमि आदि २२ तीर्थंकरों के समान महाविदेह क्षेत्र में भी चार महाव्रत ही लिये जाते हैं) महाव्रत अंगीकार करके कण्डरीक के ही मुनिवेष के उपकरण धारण कर लिये और मन ही मन ऐसा अभिग्रह धारण करके वहाँ से प्रस्थान किया - " स्थविरमुनियों के दर्शन-वंदन जब तक नहीं कर लूंगा, तब तक मैं आहार ग्रहण नहीं करूँगा।" • इधर नंगे पैर पैदल चलने का पुण्डरीक का अभ्यास नहीं था, इस कारण रास्ते में कांटे-कंकर आदि से पैर छिल गये, भूख-प्यास के मारे शरीर लड़खड़ा गया; फिर भी साहसी और वैराग्यबली पुण्डरीक उत्साह पूर्वक इन उपसर्गों व कष्टों को सहते हुए और मन में स्थविर मुनियों के दर्शन - वंदन की उत्कण्ठा लिये आगे से आगे बढ़ते गये। आखिर वे अत्यंत थके, भूखे-प्यासे कष्टपीड़ित से दूसरे दिन स्थविर मुनियों के पास पहुँचे। उन्हें विधिपूर्वक वंदन. करके उनसे प्रार्थना करके उनके मुख से चार महाव्रतों को विधिवत् ग्रहण किया। उसके पश्चात् जैसा भी रूखा-सूखा नीरस आहार मिला, लेकर छट्ठ (बेले) तप का पारणा किया। अत्यंत थकावट तथा रूखा-सूखा आहार करने के कारण आधीरात को शरीर में अचानक भयंकर पीड़ा हुई। मगर पुण्डरीक मुनि ने तीव्र शुभ परिणामों से उसे दृढ़तापूर्वक सहा। विशुद्ध ध्यान में लीन होते हुए ही मृत्यु का स्वीकार किया और सीधे ३३ सागरोपम की आयु वाले सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर वे पुनः महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर धर्मकरणी करके वहाँ से सिद्धगति में पहुँचे। इसी प्रकार थोड़े समय तक भी जो शुद्ध रूप से चारित्र का प्रतिपालन करता है, वह पुण्डरीक महर्षि के समान अक्षयसुख प्राप्त करता है || २५२ || काऊण संकिलिट्टं सामन्नं, दुल्लहं विसोहिपयं । सुज्झिज्जा एगयरो, करिज्ज जड़ उज्जमं पच्छा ॥२५३॥ शब्दार्थ - जिसने पहले चारित्र ( श्रामण्य) को दूषित कर दिया हो, उसे बाद 322
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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