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________________ श्री उपदेश माला गाथा २४६-२५२ कर्म की कुटीलता बिना चारित्राराधना न कर सके। इसीलिए कर्मों का कोई विश्वास नहीं करना चाहिए।।२४८॥ कलुसीकओ अ किट्टीकओ, खउरीकओ मलिणिओ य । कम्मेहिं एस जीयो, नाऊण वि मुज्झई जेण ॥२४९॥ शब्दार्थ - जैसे धूल से भरा हुआ पानी कीचड़वाला (मैला) हो जाता है, लोहे को जंग लग जाने पर वह भी मलिन हो जाता है और लड्डू पुराना हो जाने पर उसका स्वाद बिगड़ जाता है, उसमें से बदबू आने लगती है, उसी प्रकार यह जीव भी कर्मों से लिप्त होकर मलिन हो जाता है, विषय, कषाय, विकथा, प्रमाद आदि बुराइयों के जंग लग जाने से बिगड़ जाता है, अथवा विषयवासनाओं आदि के चक्कर में वर्षों तक फंसा रहकर अपना स्वभाव खराब कर लेता है। संसारी जीव यह जानते हुए भी मोह से मूढ़ बना रहता है, इसके पीछे निकाचित कर्मदोष ही कारण है।।२४९।। कम्मेहिं वज्जसारोवमेहि, जउनंदणो वि पडिबुद्धो । सुबहुँ पि विसूरंतो, न तरइ अप्पक्खमं काउं ॥२५०॥ शब्दार्थ - यदुनंदन श्रीकृष्ण क्षायिकसम्यक्त्वी होने के कारण स्वयं जागृत थे और अपनी पापकरणी के लिए बहुत पश्चात्ताप भी करते थे; किन्तु वज्रलेप के समान गाढ़ चिपके हुए निकाचित कर्मों के कारण आत्महितकारक कोई भी अनुष्ठान न कर सके। अपने आत्महित की साधना करना सरल बात नहीं है। इसके लिये महान् पुण्योदय आवश्यक है ।।२५०।। वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि । अंते किलिट्ठभायो, न विसुज्झइ कंडरीओ व्य ॥२५१॥ शब्दार्थ - एक हजार वर्ष तक प्रचुरमात्रा में तप-संयम की आराधना करके भी कोई मुनि यदि अंतिम समय में अशुभ परिणाम ले आता है, तो वह कर्मक्षय करके विशुद्ध नहीं हो सकता। वह अपने अंतिम क्लिष्ट (राग-द्वेष युक्त) भावों के कारण दुर्गति में ही जाता है; जैसे कण्डरीक मुनि मलिन परिणामों के कारण नरक में गया।।२५१।। अप्पेण वि कालेणं, केई जहागहियसीलसामण्णा । साहति निययकज्ज, पुंडरीयमहारिसि व्य जहा ॥२५२॥ शब्दार्थ - जिस भाव से शील-चारित्र-ग्रहण करते हैं, उसी भाव से शीलचारित्र की आराधना करने वाले कई साधु अल्पकाल में ही अपना कार्य (सद्गति = 319
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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