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श्रावक. के 'गुण और लक्षण
श्री उपदेश माला गाथा २४८ दिया, परंतु दसवाँ सुनार जाति का व्यक्ति ऐसा था कि वह किसी भी मूल्य पर नंदीषेण की बात मानने को तैयार न था। जब नंदीषेण त्याग-वैराग्य और सांसारिक विषयों की अनित्यता बताकर उसे प्रतिबोध देने लगा तो उसने तपाक से कह दिया"इस तरह की बातें बघारते हो तो पहले तुम खुद ही गृह त्याग करके चारित्र ग्रहण क्यों नहीं कर लेते? क्यों वेश्या के यहाँ पड़े हो?'' जब नंदीषण ने उससे कहा कि 'मेरे तो मोहकर्म का उदय है' तब उसने भी वही बात दोहरा दी। वेश्या ने उत्तम स्वादिष्ट भोजन बना लिया था, वह ठंडा हो रहा था। जब उसने दासी को कहला कर भेजा कि भोजन ठंडा हो रहा है, जल्दी पधारों तो नंदीषण ने उत्तर दिया कि "दसवां आदमी प्रतिबोधित होते ही मैं आता हूँ।" पर दसवां आदमी कोई तैयार नहीं हो रहा था। आखिर कई घंटों की प्रतीक्षा के बाद वेश्या स्वयं बुलाने आयी और हाथ पकड़कर कहने लगी-"प्राणनाथ! पधारो न! देर क्यों कर रहे हैं अब!'' 'अभी आया दसवें पुरुष को प्रतिबोध देकर' वेश्या दूसरी और तीसरी बार बुलाने आ चुकी; और उसने कहा-"प्रिय! शाम होने आयी है। मैं भी भूखी हूँ, आपने अभी तक कुछ नहीं खाया है; चलो।" परंतु नंदीषण ने कहा"सुनयने! चाहे कुछ भी हो जाय, दसवें आदमी को प्रतिबोध दिये बिना मैं भोजन नहीं कर सकता। मैं अपना नियम भंग नहीं कर सकता!'' वेश्या ने तैश में (जोश में) आकर कह दिया- "जब दसवां और कोई आदमी प्रतिबोध पाने को तैयार नहीं होता तो उसके स्थान पर आप अपने को प्रतिबोधित मान लें और किसी भी तरह से इस नियम को पूरा करके भोजन तो कर लें।" वेश्या के वचन सुनकर नंदीषण का सोया हुआ मन जागृत हो गया। नंदीषेण के भोगावली कर्म अब क्षीण होने को थे। सहसा उसने निश्चय कर लिया कि मैं ही प्रतिबोध के लिए तैयार क्यों न हो जाऊं!" बस, शीघ्र ही खूटी पर टंगे हुए अपने मुनिवेश के उपकरण उतारकर धारण किये और वेश्या को 'धर्मलाभ' कहकर वहाँ से चलने लगा। वेश्या ने बहुत आजीजी करते हुए कहा- "स्वामिन्! मैंने तो मजाक में यह बात कही थी। आपने इसे सच्चीकर बतायी। अतः आप मुझे अकेली छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आपके बिना मेरी जिंदगी सूनी हो जायगी।" नंदीषेण बोले-"तुम्हारे साथ मेरा इतना ही संबंध था। अब मैं हर्गिज यहाँ नहीं रह सकता।'' यों कहकर नंदीषेण सीधे भगवान् महावीर के पास पहुंचे और उनसे पुनः मुनि दीक्षा लेकर निरतिचार चारित्राराधना करने लगे। अंतिम समय में अनशन करके आयुष्य पूर्ण कर वे देवलोक में पहुँचे। जैसे नंदीषेण मुनि दशपूर्वधर थे, उपदेश लब्धिसम्पन्न और प्रतिबोध कुशल भी थे; मगर निकाचित कर्म बंधे हुए होने के कारण वे उन्हें भोगे
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