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________________ श्री उपदेश माला गाथा २४८ प्रतिबोधकुशल नंदीषेणमुनि की कथा अपने पुत्र के समान पालते थे। इसीलिए वह तापसों का अत्यंत प्रीतिभाजन बन गया। तापसों की संगति से वह भी अपनी सूंड में पानी भरकर आश्रम के वृक्षों को सींचने लगा। इस कारण तापसों ने उसका यथार्थ नाम 'सेचनक' रख दिया। सेचनक धीरे-धीरे आश्रम में पलकर अतिबलिष्ठ जवान हो गया। एक दिन सेचनक मस्ती से वन में घूम रहा था, तभी हाथियों का यूथपति (उसका पिता) उधर आ निकला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों परस्पर भिड़ गये। इस आपसी युद्ध में सेचनक ने यूथपति को यमलोक का मेहमान बना दिया। उसी दिन से वह सेचनक स्वयं यूथपति बन गया। एक दिन उसने सोचा"जिस तरह मेरी माता ने इस आश्रम में गुप्तरूप से मुझे जन्म दिया, पाला-पोसा, बड़ा किया और मैं अपने पिता को मारकर स्वयं यूथपति बना; इसी प्रकार भविष्य में इस टोले की कोई हथिनी भी इसी प्रकार गुप्त रूप से आश्रम में किसी बच्चे को जन्म देगी तो वह भी बड़ा होकर मुझे मारकर स्वयं यूथपति बन बैठेगा। अतः इस झंझट की जड़ आश्रम को ही क्यों न खत्म कर दिया जाय।" मन में निर्णय करके सेचनक आश्रम में पहुँचा और बावला बनकर उसने आश्रम की तमाम झोपड़ियां नष्टभ्रष्ट कर डाली। इससे तापस बड़े क्रुद्ध हुए और परस्पर कहने लगे"अरे! देखो तो सही इस कृतघ्न हाथी को! हमने तो इसका पुत्रवत् लालन-पालन किया और आज यह हमारे ही आश्रम को उजाड़ रहा है। अतः अब किसी भी तरह से इसे बंधन में डलवाकर सजा देनी चाहिए।" तापसों ने राजा श्रेणिक के पास जाकर प्रार्थना की-"राजन्! हम जिस वन में रहते हैं, उस में एक बहुत श्रेष्ठ हाथी है। वह राजा के ग्रहण करने योग्य हस्तिरत्न है; इसीलिए आप उस हाथी को वहाँ से पकड़ मंगावें।' श्रेणिकराजा ने तापसों की बात सुनकर उस सेचनक हाथी को सारे परिवारसहित वन में जाकर पकड़ने की बहुत चेष्टा की, लेकिन सफलता न मिली। संयोगवश इतने में नंदीषेणकुमार भी खेलता-खेलता वहाँ आ पहुँचा। उसने ज्यों ही हाथी को सम्बोधित करके उसकी ओर टकटकी लगाकर देखा, त्यों ही उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। उसके प्रकाश में उसने अपना पूर्वजन्म देखा और तुरंत वहीं वह शांत हो गया। नंदीषेण उसकी सूंड पकड़कर उसके सहारे उस पर चढ़ा और उसे नगर में लाकर राजमहल के चौक में बांध दिया। बचपन पार करके नंदीषेण जब जवान हुआ तो पिता ने पांच सौ राजकन्याओं के साथ उसकी शादी की। वह उनके साथ आमोद-प्रमोद में अपना जीवन बीताने लगा। एक दिन श्री वर्धमान स्वामी राजगृह नगर में पधारें। नंदीषेण कुमार उनके - 315
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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