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________________ प्रतिबोधकुशल नंदीषेणमुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा २४८ दर्शनार्थ गया। प्रभु को नमस्कार करके विनयपूर्वक उसने पूछा- "भगवन्! मुझे देखकर इस सेचनक हाथी को मेरे प्रति स्नेह क्यों कर हुआ?' इसके उत्तर में भगवान् ने उन दोनों के पूर्वजन्म की सारी घटना सुनायी। उसे सुनकर नंदीषेण ने मन ही मन सोचा-"जब साधु-मुनिवरों को अन्नादि देने से इतना पुण्य मिला, तब मुनिदीक्षा लेकर यदि तप किया जाय तो उसका कितना महान् फल मिलेगा?" उसने मन में निश्चय करके भगवान् से प्रार्थना की- 'भगवन्! स्व-पर कल्याणकारिणी मुनि दीक्षा देकर मुझे कृतार्थ कीजिए!" प्रभु ने कहा-"वत्स नंदीषेण! अभी और गहराई से इस पर विचार कर लो। तुम्हारे निकाचित रूप से बद्ध कर्मों का भोग फल बाकी है। इसीलिए बाद में इस कारण पिछड़ना न पड़े, अभी उतावल न करो।" इसी समय इसी तरह की चेतावनी की आकाशवाणी भी हुई। परंतु नंदीषण के मन में दृढ़ता, साहस और प्रबल उमंग थी, इसीलिए अपनी ५०० पत्नियों को छोड़कर वह मुनि दीक्षा ग्रहण करने के लिए उत्सुक हुआ। भगवान् ने भी ऐसी ही भवितव्यता (होनहार) जानकर उसे दीक्षा दे दी और अध्ययन के लिए स्थविर मुनियों को सौंपा। नंदीषेणमुनि ने सामायिक से लेकर दस पूर्वो तक का शास्त्र ज्ञान प्राप्त किया। साथ ही वह छट्ठ-अट्ठम-आतापना आदि तपस्याएं करता हुआ महाकष्ट और अनेक उपसर्ग समभावपूर्वक सहने लगा; जिससे उसे क्रमशः बहुतसी लब्धियाँ प्राप्त हो गयी। मगर उसके साथ-साथ कामोदय में भी दिनोंदिन वृद्धि होती जाती थी। एक दिन नंदीषेण मुनि के मन में विचारों का झंझावात उठा कि "मैंने भगवान् और देवों के मना करने पर भी उत्साहित होकर मुनि दीक्षा ली; परंतु काम का वेग तेजी से बढ़ता जा रहा है, इसीलिए कहीं ऐसा न हो कि यह काम अपने चंगुल में फंसाकर मेरे महाव्रतों को ले बैठे। अतः समय रहते कोई ऐसा उपाय कर लूं, जिससे काम मुझे परवश करके अपने चंगुल में फंसाए, उससे पहले मैं अपना इहलौकिक कार्य सिद्ध कर लूं।'' नंदीषेण ने इसके उपाय के रूप में आत्महत्या कर लेने का निश्चय किया। परंतु ज्यों ही उसने शस्त्र से घात करने या गले में फंदा डालने आदि प्रयास किये, त्यों ही शासनदेवी ने उसके सारे प्रयास विफल कर दिये। फिर किसी दिन उसके मन में प्रबल कामज्वर का तूफान उठा कि वह पहाड़ पर चढ़कर झंपापात करने (नीचे गिरने) लगा। मगर इस बार भी पर्वत से नीचे गिरते हुए को शासनदेवता ने हाथों में झेलकर बचा लिया और कहा-"महानुभाव! तुम्हारा इस तरह आत्महत्या करने का प्रयास वृथा है। क्या आत्महत्या कर लेने से निकाचित कर्म छूट जायेंगे? तुम्हारे निकाचित कर्मों को तो तुम्हें भोगे बिना कोई 316
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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