SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उपदेश माला गाथा २४८ शैलकाचार्य और पंथकशिष्य की कथा वे क्रोधातुर होकर बोले- "अरे! किस दुष्ट ने मेरी नींद उड़ा दी?" पंथक मुनि ने कुछ भी क्रोध न करते हुए सविनय उत्तर दिया-"पूज्य! आज चातुर्मासिक पर्वदिवस था। मैं प्रतिक्रमण करके आपसे क्षमायाचना करने के लिए आया था; इससे आपके चरणों का स्पर्श करने से आपकी नींद में खलल पड़ी है। मेरे इस अपराध को क्षमा करिये, गुरुदेव! भविष्य में ऐसा अपराध नहीं करूँगा।" पन्थक मुनि के द्वारा बार-बार विनम्र शब्दों में अपने ही अपराध का निवेदन और क्षमायाचना का स्वर सुनकर शैलक राजर्षि एकदम सावधान होकर उठ बैठे। अंतर में चिन्तन की धारा बह चली-"धन्य है इस शिष्य पंथक को! कितना क्षमावान, कितना विनीत और कितना आत्मालोचक है यह! धिक्कार हे मुझे! मैं स्वादिष्ट भोजन के लोभ में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण जैसे नित्यकृत्य, नियम और धर्म को भी छोड़ बैठा; इस पर रोष किया, इसे डांटा भी सही, मगर इसने मेरी सेवा नहीं छोड़ी, मेरे प्रति अपना दायित्व और कर्तव्य निभाया! मुझे उन्मार्ग पर जाते हुए इसने रोका; सन्मार्ग पर लगाया!" इस प्रकार आत्मनिन्दा करते हुए राजर्षि के वैराग्यपूर्ण हृदय से आशीर्वाद के ये उद्गार बरस पड़े-"वत्स पन्थक! धन्य है तुम्हें! मैं तो तुम्हारा गुरु कहलाकर भी उलटे रास्ते पर चल पड़ा था, लेकिन तुमने अपनी विनम्रता, सेवा और सद्भावना से मुझे मोहनिद्रा से जगाकर भवसागर में गिरने से बचाया है! अब मुझे अपनी आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर आत्मशुद्धि करनी है और अब हमें यहाँ एक दिन भी नहीं ठहरना है।" इस प्रकार शैलक राजर्षि प्रमाद दूर करके वहाँ से अन्यत्र विहार करके शुद्ध चारित्र-पालन करने लगे। धीरे-धीरे सभी बिछुड़े हुए शिष्य गुरु की पुनः चारित्र दृढ़ता सुनकर उनके पास आ गये। उसके पश्चात् वे चिरकाल विभिन्न प्रदेशों में स्व-पर कल्याणार्थ विचरण करते हुए अनेक भव्यजीवों को प्रतिबोध देकर ५०० शिष्यों सहित श्रीसिद्धाचलतीर्थ पहुंचे। वहाँ अनशन तप स्वीकार करके उन्होंने सिद्धपद प्राप्त किया ॥२४७॥ . इसी प्रकार सुशिष्य अपने प्रमादी गुरु को भी निपुणता युक्त मधुर वचनों से सन्मार्ग पर ले आते हैं, यही इस कथा का सारांश है। दस-दस दिवसे-दिवसे, धम्मे बोहेइ अहव अहिअयरे । इय नंदिसेणसत्ती, तहवि य से संजमविवत्ती ॥२४८॥ शब्दार्थ – 'प्रतिदिन दस या इससे भी अधिक व्यक्तियों को धर्म का प्रतिबोध देने की शक्ति विद्यमान थी फिर भी नंदिषेण मुनि के निकाचित कर्म-बंध के कारण संयम (चारित्र) का विनाश हुआ। अतः निकाचित कर्मबंध का भोग अत्यंत बलवान है ।।२४८।। यही इस गाथा का भावार्थ है।' - 313
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy