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________________ उपाश्रयादि की चिंता श्री उपदेश माला गाथा २४७ ने भी क्रमशः १२ अंगसूत्रों का अध्ययन किया। उनके गुरु ने योग्य जानकर उन्हें आचार्यपद दिया। शुक्राचार्य ने एक हजार साधुओं के साथ पवित्र तीर्थधाम श्रीसिद्धाचल पहुँचकर संल्लेखना पूर्वक अनशन ग्रहण किया, और अंत में केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया। एक बार आचार्य शैलकराजर्षि के शरीर में रूखा-सूखा, नीरस आहार करने से महा-व्याधियाँ पैदा हो गयी। इन दुःसाध्य व्याधियों के होते हुए भी आचार्य शैलक कठोर तप करते रहते थे। वे एक बार विहार करते-करते शैलकपुर पहुँचे। उनके नगर-पदार्पण के समाचार सुनकर मंडुकनृप भी उनके दर्शनार्थ गया। आचार्यश्रीजी का धर्मोपदेश सुनकर राजा जीव-अजीव आदि ९ तत्त्वों का जानकार हुआ। तत्पश्चात् उसने आचार्य शैलक राजर्षि का शरीर रक्त-मांस से रहित, सखा-सा, जीर्ण-शीर्ण देखकर विनय पूर्वक अर्ज की-"स्वामिन्! आपका शरीर किसी भयंकर रोग से जर्जरित हो रहा मालूम होता है। अतः आप किसी बात का संकोच न करें। मेरी यानशाला में पधारें। वहाँ शुद्ध औषध द्वारा योग्य चिकित्सा करवाने तथा पथ्यकर भोजन के सेवन से आपका समस्त रोग नष्ट हो जायगा।" आचार्य शैलक राजर्षि राजा मंडुक की बात मानकर अपने शिष्यों सहित राजा की यानशाला में पधारें। यहाँ राजा द्वारा औषधोपचार और पथ्यभोजन के प्रबंध से उनका शरीर कुछ ही दिनों में बिलकुल स्वस्थ हो गया। किन्तु आचार्य रोजाना स्वादिष्ट भोजन पाने के लोभवश वहाँ से अन्यत्र कहीं विहार नहीं करना चाहते थे। वहीं जमकर रहने लगे। शिष्यों ने जब देखा कि वे स्वाद-लोलुप होकर कहनेसमझने पर भी विहार नहीं करते तो केवल एक मुनि पंथक शिष्य को छोड़कर दूसरे सब साधु वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये। प्रतिदिन स्वादिष्ट गरिष्ठ आहार मिलता था, सोने के लिए सुखशय्या थी ही, सेवा करने के लिए पंथक मुनि था, फिर क्या कहना था! शैलक राजर्षि रसलोलुप होकर इतने सुखशील हो गये कि अपने नित्यकृत्य भी छोड़ बैठे। आहार भी भिक्षा के दोषों से युक्त (अशुद्ध) करने लगे। कार्तिक सुदी पूर्णिमा का चातुर्मासिक पर्वसमाप्ति का दिन था। आचार्यश्री स्वादिष्ट भोजन करके संध्यासमय ही सुखनिद्रा में सो गये थे। पंथक मुनि ने गुरुजी की निद्राभंग करना उचित न समझकर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया और उसके अंत में क्षमितक्षमापना (क्षमायाचना) करने के लिए गुरु की शय्या के पास आये, अपने मस्तक से उनके चरणों का स्पर्श किया और ज्यों ही वे क्षमायाचना के लिए उद्गार निकालते हैं, त्यों ही आचार्य शैलक राजर्षि की नींद उड़ गयी। इस कारण 312
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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