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श्री उपदेश माला गाथा २३१-२३५
श्रावक के गुण और लक्षण करता है, वह श्रावक कहलाता है ।।२३०।। ___ सुविणिच्छियएगमड़, धम्ममि अणण्णदेवओ य पुणो ।
न य कुसमएसु रज्जड़, पुव्यावरवाहयत्थेसु ॥२३१॥
शब्दार्थ - जो जैनधर्म में अटल, सुनिश्चित, एकाग्रमति है और वीतरागदेवों के सिवाय अन्य देवों को नहीं मानता, और न पूर्वापरविरोधी असंगत अर्थों (बातों) वाले कुशास्त्रों में जिसका अनुराग नहीं होता है; वही श्रावक कहलाता है। सच्चा श्रावक देव, गुरु, धर्म और शास्त्र की भली भांति परीक्षा करके धर्माराधना करता है।।२३१।।
द?णं कुलिंगिणं, तस-थावर भूयमद्दणं विविहं । धम्माओ न चालिज्जड़, देवेहिं सईदएहिं पि ॥२३२॥
शब्दार्थ - दृढ़धर्मी श्रावक, अपने हाथ से रसोई आदि बनाने में विविध प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों का मर्दन (आरंभ जनित हिंसा) करते हुए कुलिंगियों (अन्य धर्मपंथ के वेष वालों) को देखकर अपने धर्म से इन्द्र सहित देवों द्वारा चलायमान किये जाने पर भी विचलित नहीं होता ।।२३२।।
वंदड़ पडिपुच्छड़, पज्जुवासेड़ साहूणो सययमेव । पढइ सुणेइ गुणेइ य, जणस्स धम्म परिकहेइ ॥२३३॥
शब्दार्थ - ऐसा श्रावक स्व-पर कल्याण के साधक साधुओं को सतत वंदन करता है, प्रश्न पूछता है, उनकी सेवाभक्ति करता है, धर्मशास्त्र पढ़ता है, सुनता है और पढ़ी-सुनी बातों पर अर्थपूर्ण चिन्तन करता है और अपनी बुद्धि के अनुसार दूसरों को या अल्पज्ञों को धर्म की बात बताता है या धर्म का बोध देता है ।।२३३।।
दढसीलव्ययनियमो, पोसह-आवस्सएसु अक्खलियो । महुमज्जमंस--पंचविहबहुबीयफलेसु पडिक्कंतो ॥२३४॥.
शब्दार्थ - वह श्रावक ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत (शील) के सहित ५ अणुव्रतों एवं नियमों पर दृढ़ रहता है। पौषध तथा आवश्यक अचूक तौर पर नियमित रूप से करता है। साथ ही मधु (शहद) मद्य (शराब) और मांसाहार, व बड़, गुल्लर (उदूम्बर) आदि ५ प्रकार के बहुबीज वाले फलों तथा बैंगन आदि बहुबीज वाले व आलू आदि अनंतकायिक जमीकंदों का त्यागी होता है ।।२३४।।
नाहम्मकम्मजीवी, पच्चक्खाणे अभिक्खमुज्जुत्तो । सव्यं परिमाणकडं, अवरज्झइ तं पि संकतो ॥२३५॥
शब्दार्थ - कर्मादान कहलाने वाली १५ प्रकार की आजीविकाए या किसी भी प्रकार की अधर्मवर्द्धक आजीविका श्रावक नहीं करता, अपितु निर्दोष व्यवसाय
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