________________
श्रावक के गुण और लक्षण
श्री उपदेश माला गाथा २३६-२३६ करता है। वह १० प्रकार के प्रत्याख्यानों (त्याग-नियमों) में सदा उद्यत रहता है, धन-धान्य आदि परिग्रह की मर्यादा करता है तथा आरंभादि पाप-दोष वाले कार्यों को भी शंकित होकर करता है। बाद में उसके लिये प्रायश्चित्त लेकर उससे मुक्त होता है। यही श्रावक की वृत्ति कहलाती है ।।२३५।।
निक्खमण-नाण-निव्वाण-जम्मभूमीओ वंदड़ जिणाणं । न य वसइ साहुजणविरहियंमि देसे बहुगुणेवि ॥२३६॥
शब्दार्थ - जिनेश्वर भगवंत के दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण और जन्म (कल्याणक)की भुमियों को वंदन करे और (सुराज्य, सुजल, धान्य समृद्ध, धन समृद्ध इत्यादि) अनेक गुण युक्त भी साधु महात्माओं से रहित देशों में निवास न करें (क्योंकि उसमें मानव जन्म के सार भूत धर्मार्जन (धर्म कमाई)में हानि पहोंचती है)।।२३६।।
पतित्थियाण पणमण-उभावण-थुणण-भत्तिरागं च ।
सक्कारं सम्माणं, दाणं विणयं च वज्जेइ ॥२३७॥
शब्दार्थ - श्रावक बनने के बाद वह अन्यतीर्थिक (दूसरे धर्म-संप्रदाय वाले) साधुओं को गुरुबुद्धि से प्रणाम (वंदना नमस्कार), उनकी बढ़ा चढ़ाकर तारीफ, या उनकी स्तुति, अथवा उनके प्रति भक्तिपूर्वक अनुराग, उनका वस्त्रादि से सत्कार, खड़े होकर सम्मान या उन्हें उत्तम पात्र मानकर आहारादि दान या उनके पैर धोने आदि. के रूप में विनय करने का त्याग करता है ।।२३७।।
श्रावक सुपात्र-गुरुबुद्धि से भोजन किसको और किस विधि से देता है? यह आगे की गाथा में बताते हैं
पढमं जईण दाऊण, अप्पणा पणमिऊण पारेइ । __ असई य सुविहियाणं, भुंजइ कयदिसालोओ ॥२३८॥
शब्दार्थ - भोजन के समय श्रावक इन्द्रिय-संयमी साधुओं को पहले निर्दोष आहार-पानी आदरपूर्वक देकर बाद में स्वयं भोजन करता है। अगर ऐसे सुपात्रसुविहितसाधुओं का निमित्त न मिले तो जिस दिशा में साधु-मुनिवर विचरण करते हों, उस दिशा में अवलोकन करके 'यदि इस समय साधु मुनिवर पधार जाय तो अच्छा हो, इस प्रकार की भावना के साथ भोजन करता है ।।२३८।।। .. साहूण कप्पणिज्जं, जं नवि दिन्नं कहिं पि किंचि तहिं ।
__धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति ॥२३९॥ शब्दार्थ - किसी भी देश या काल में साधुओं के लिए कल्पनीय शुद्ध आहार
308