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मृलोत्तरगुण भ्रष्ट सुविहित साधुओं से वंदना न ले-श्रावक कर्तव्य श्री उपदेश माला गाथा २२८-२३० में राजा की सारी सेना, जो पीछे-पीछे आ रही थी, वहाँ आ पहुँची। उसके साथ राजा अपने नगर को लौट गया। इस प्रकार सुसंग-दुःसंग का फल जानकर भ्रष्टाचारियों का दुःसंग छोड़कर सदाचारियों के सुसंग में रहकर अपने तप-जपसंयम में पुरुषार्थ करना चाहिए ।।१३०।। शास्त्र में भी बताया है
वरमग्गिंमि पवेसो वरं विसुद्धेण कम्मुणा मरणं ।
मा गहियव्वयभंगो, मा जीयं खलियसीलस्स ।।१३१।।
अर्थात् - अग्नि में प्रवेश करना अच्छा और विशुद्ध कर्म करते हुए अनशन करके मर जाना भी अच्छा; लेकिन ग्रहण किये हुए व्रतों का भंग करना ठीक नहीं और न ऐसे शीलभ्रष्ट का जीना ही अच्छा है ॥१३१।।
ओसन्नचरणकरण जइणो, बंदंति कारणं पप्प ।
जे सुविइयपरमत्था, ते वंदंते निवारेंति ॥२२८॥
शब्दार्थ - किसी कारणवश सुविहित साधु मूलगुण रूप चरण और पंचसमिति आदि उत्तरगुण रूप करण से शिथिल या भ्रष्ट साधु को भी वंदना करते हैं। परंतु जिन्होंने परमार्थ को भलीभांति जान लिया है, वे 'हम तत्त्वज्ञ सुविहित मुनियों के द्वारा वंदन कराने योग्य नहीं है, इस प्रकार आत्म दोष को जानकर वंदना करने के लिए उद्यत पासत्था आदि साधुओं को रोके और उन्हें कहे कि आप हमें वंदना न करें। भावार्थ यह है कि मूल-उत्तरगुणों से रहित सुसाधुओं से वंदना न लें।।२२८।।
सुविहिय वंदावेतो, नासेड़ अप्पयं तु सुप्पहाओ । दुविहपहविप्पमुक्को, कहमप्पं न जाणई मूढो ॥२२९॥
शब्दार्थ - जो पासत्था आदि शिथिलाचारी साधु सुविहित साधुओं से वंदना करवाता है, वह अपने ही सुप्रभाव को नष्ट करता है। अथवा वह सुपथ (मोक्षमार्ग) से अपनी आत्मा को दूर फेंकता है। क्योंकि आचारभ्रष्ट साधु साधुधर्म और श्रावकधर्म दोनों मार्गों से रहित होता है। पता नहीं, वह मिथ्याभिमानी मूढ़ अपने-आपको क्यों नहीं जानता कि मैं दोनों मार्गों से भ्रष्ट हो रहा हूँ, इससे मेरी क्या गति होगी?।।२२९।।
अब श्रावक के गुणों का वर्णन करते हैं
वंदइ उभओ कालंपि, चेइयाई थवत्थुईपरमो ।
जिणवरपडिमाघरधूयपुप्फगंधच्वणुज्जत्तो ॥२३०॥
शब्दार्थ - जो सुबह-शाम (दोनों समय) और अपि शब्द से मध्याह्नकाल में भी (यानी तीनों काल) स्तवन और स्तुति में तत्पर होकर चैत्यवंदन करता है तथा जिनवर-प्रतिमा-गृह में धूप, फूल, सुगंधित द्रव्य से अर्चन-(पूजन) करने में उद्यम
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