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आत्मदमन न करने वाले मंगू आचार्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा १६१ आचार्य मथुरा नगरी में पधारें। नगरी में बहुत से धनाढ्य श्रावक रहते थें। वे साधुओं की अत्यंत सेवा - भक्ति किया करते थें। इस कारण आचार्य महाराज की भी वे बहुत सेवा करने लगे। आचार्यश्रीजी भी वही रहकर पठन-पाठन और व्याख्यान आदि करते थें। इस कारण उन्होंने अपने व्याख्यान आदि से श्रावकों के चित्त पर ऐसा जादू कर दिया कि वे इन आचार्य की गाढ़ सेवाभक्ति करने लगे। वे जानते थे कि इन आचार्य भगवान् को आहार आदि का दान करने से हम भव से पार होंगे। अतः रागवश वहाँ के श्रावक मिष्टान्न और स्वादिष्ट सुंदर आहार देने लगे। आचार्य के मन में भी ऐसा आहार मिलने से रसलोलुपता जागी, और वे मन ही मन विचार करने लगे - " विहार करके अन्य स्थान पर जहाँ कहीं भी जायेंगे तो वहाँ, कहाँ ऐसा सरस आहार मिलेगा ? यहाँ के श्रावक भी मेरे प्रति विशेष भक्ति रखते ही हैं। इसीलिए अब हमें यहीं जमे रहना ठीक है।" ऐसा सोचकर वे आचार्य वहीं एक ही स्थान पर रहने लगे। न श्रावकों ने राग मोह वश उनसे कुछ कहा और न साधुओं ने ही विहार की बात छेड़ी।
धीरे-धीरे गृहस्थों के साथ उनका परिचय गाढ़ होता गया । मिष्टान्न और गरिष्ठ भोजन करने से, कोमल गुदगुदाती शय्या पर शयन करने से और सुंदर उपाश्रय में रहने से वे आचार्य रस- लुब्ध हो गये। अब उन्होंने आवश्यक आदि नित्य क्रियाएं भी छोड़ दी। उलटे मन में वे अहंकार करने लगे कि मेरे तप, त्याग, 'व्याख्यानादि से आकर्षित होकर 'मुझे श्रावक कितना स्वादिष्ट भोजन देते हैं? ' यों अहंकारवश रसगारव ( स्वादिष्ट वस्तुप्राप्ति का गर्व) करने लगे। फिर क्रमशः तीनों गारवों (गर्वों) में निमग्न होकर वे सारे जगत् को तृणसमान मानने लगे, मूल गुणों में भी समय-समय पर दोष लगाने से शिथिल हो गये। और इस तरह चिरकाल तक अतिचारादि से दूषित चारित्र पालन कर और अंतिम समय में उसका प्रायश्चित्त किये बिना ही मरकर वे उसी नगरी के गंदे नाले के पास यक्षमंदिर में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ जब उन्होंने विभंगज्ञान से अपना पूर्वजन्म देखा तो बड़ा पश्चात्ताप करने लगे - "हाय ! मैंने मूर्खतावश जिह्वा के स्वाद में लुब्ध होकर ऐसे कुदेव के रूप में जन्म पाया है।" एक दिन स्थंडिलभूमि जाकर लौटते हुए अपने शिष्यों को देखकर यक्ष उनको लक्ष्य करके अपनी जीभ मुख से बाहर निकालकर दिखाने लगे। यह देखकर उन सब शिष्यों ने दिल मजबूत करके उससे पूछा कि " यक्षराज ! आप कौन हैं? और किसलिए और क्यों अपनी जीभ बार-बार बाहर निकाल रहे हैं?" यक्ष ने कहा - ' - " मैं तुम्हारा गुरु मंगू नाम का आचार्य हूँ। जिह्वा के स्वाद के वशीभूत होकर मैं ऐसी अपवित्र देवयोनि में जन्मा हूँ।" मैंने गृहस्थ
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