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________________ श्री उपदेश माला गाथा १६२-१६३ मंगू आचार्य की कथा एवं उसका पश्चात्ताप का त्याग करके चारित्र लेकर भी श्री जिनेश्वरदेव कथित धर्म की शुद्ध रूप से आराधना नहीं की, और तीनों गारवों से आत्मा को मलिन बनायी । चारित्र की शिथिलता में सारी आयु बिता दी। अब कुछ नहीं सूझता कि मैं अधन्य, पुण्य रहित और विरति रहित क्या करूँ? इस जन्म में तो मैं चारित्र - पालन करने में असमर्थ हूँ। इसीलिए मैं अपनी आत्मा के बारे में सोच-सोचकर चिन्तित हो उठता हूँ कि वीतराग का उत्तम मुनि-धर्म प्राप्त होने पर भी उसका सम्यक् प्रकार से पालन नहीं किया; इस कारण चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा। इसीलिए मेरी तरह रस लोलुप न होना। यदि रस लुब्ध बनकर चारित्र के प्रति उपेक्षा कर दी तो आपको भी मेरी तरह पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इस तरह अपने पूर्वजन्म के शिष्यों को उपदेश देकर वह यक्ष अदृश्य हो गया उन साधुओं ने इस बात से नसीहत लेकर शुद्ध चारित्र की आराधना की और सद्गति में पहुँचे || १९१।। इस कथा को सुनकर सभी को जिह्वा के स्वाद का त्याग करना चाहिए। वह यक्ष किस तरह शोकातुर हुआ था? यह बात अब इस नीचे की गाथा में बता रहे हैं निग्गंतूण घराओ, न कओ धम्मो मए जिणक्खाओ । इड्ढिरससायगुरुयत्तणेण, न य चेइओ अप्पा ॥१९२॥ शब्दार्थ - हा! मैंने गृहस्थ का त्याग करके चारित्र अंगीकार किया परंतु सुंदर आवास, वस्त्र आदि ऋद्धि की प्राप्ति से ऋद्धि गारव (गर्व) स्वादिष्ट भोजन आदि के रस प्राप्त होने से रसगारव और कोमल शय्यादिक के सुख से शाता गारव, इस तरह तीनों गावों के चक्कर में पड़कर मैंने श्री जिनेश्वर भगवान् द्वारा उक्त धर्म की आराधना नहीं कि और न मैंने अपनी आत्मा को सावधान ही किया । इसीलिए आज मेरी ऐसी दशा हुई है ।।१९२।। अतः आप सभी साधु सावधान होकर संयम का पालन करना। ओसन्नविहारेणं, हा जइ झीगंमि आउए सच्चे । - किं काहामि अहन्नो ? संपइ सोयामि अप्पाणं ॥१९३॥ शब्दार्थ : अफसोस है, मेरी सारी आयु चारित्र - पालन की शिथिलता (प्रमाद, असावधानी आदि) में बीत, क्षीण हो गयी; अब मैं अभागा धर्म रूप संबंध के बिना क्या करूँ? अब (इस जन्म में) मैं आत्मा के बारे में चिन्ता कर रहा हूँ। परंतु अब शोक करने मात्र से क्या होगा ? ।।१९३।। 295
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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