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श्री उपदेश माला गाथा १८८-१६१ आत्मदमन न करने वाले मंगू आचार्य की कथा
सीलव्ययाइं जो बहुफलाई, हंतूण सोनमहिलसइ ।
धिइदुब्बलो तवस्सी, कोडीए कागिणिं किणइ ॥१८८॥ ___ शब्दार्थ - शील, व्रत आदि का आचरण, स्वर्ग, मोक्ष आदि महान् फलों को देने वाला है। परंतु धैर्य रखने में कमजोर व असंतोषी तपस्वी शील-व्रतों को भंग करके विषय-सेवन रूप सुख की अभिलाषा करता है; वह मूर्ख अपनी दुर्बद्धि-वश करोड़ों का द्रव्य देकर बदले में रुपये के ८० वे हिस्से के रूप में काकिणी पत्थर को खरीदता है ।।१८८।।
जीवो जहामणसियं, हियइच्छियपत्थिएहिं सोक्नेहिं । - तोसेऊण न तीरइ जावज्जीवेण सव्येण ॥१८९॥
शब्दार्थ - संसारी जीव को उसके मन की अभिलाषा के अनुरूप अथवा दिल में चिन्तित या प्रार्थित स्त्री आदि के सुखों से सारी जिंदगी तक संतुष्ट किया जाय; फिर भी उसकी संतुष्टि या तृप्ति नहीं होती। उलटी तृष्णा की वृद्धि होती जाती है।।१८९।।
सुमिणंतराणुभूयं, सोक्वं समइत्थियं जहा नत्थि ।
एवमिमं पि अईयं, सोक्खं सुमिणोवमं होई ॥१९०॥ . शब्दार्थ - जैसे स्वप्न-अवस्था में अनुभव किया हुआ सुख जागृत अवस्था में बिलकुल नहीं रहता। वैसे ही भूतकाल में प्रत्यक्ष-अनुभव किया हुआ विषयसुख भी वर्तमानकाल में उसी स्वप्न के सुख के समान हो जाता है। अतः समस्त विषयसुखों को तुच्छ, कल्पित और क्षणिक मानकर वैराग्यपूर्वक आत्मदमन करना ही सर्वथा उचित है ।।१९०॥
पुरनिद्धमणे जक्खो, महुरामंगू तहेव सुयनिहसो । बोहेइ सुविहियजण, विसूरइ बहुँ च हियएणं ॥१९१॥
शब्दार्थ - 'आगम-सिद्धान्त की परीक्षा में कसौटी के पत्थर के समान यानी बहुश्रुत मंगू नाम के आचार्य मथुरा नगरी में गंदे नाले के पास वाले यक्षमंदिर में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए। किन्तु अपने सुविहित साधुजन (शिष्यगण) को प्रतिबोध करते समय हृदय में अत्यंत शोक करते थे'।।१९१।।
इसका संबंध अगली गाथा से है। यहाँ प्रसंगवश मंगू आचार्य की कथा दे रहे हैं
मंगू-आचार्य की कथा एक बार आगमशास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी, युगप्रधान श्रीमंगू नाम के
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