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________________ निमित्तों से दूर रहना-सुकुमालि का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा १८२ देखा कि "मैं यहाँ इस अज्ञातस्थल में कैसे आ गयी?" इतने में वहाँ एक सार्थवाह आ पहुँचा। उसके नौकर जल और लकड़ियों के लिए जंगल में घूम रहे थे। वे उसे वनदेवी समझकर प्रार्थना करके सार्थवाह के पास ले आये। सार्थवाह ने भी उसके शरीर में स्त्रियों से तैल की मालिश आदि करवाई और योग्य भोजनादि कराया; जिससे वह पुनः स्वस्थ और सशक्त हुई। एक तरह से उसने फिर नयी जवानी पायी। किन्तु उसका यौवन और रूप फिर उसके लिये खतरनाक बना। वह सार्थवाह उसके रूप और यौवन से मोहित हो गया। उसने कहा - "सुंदरी! तुम्हारा यह सुंदर शरीर विषयसुखों के उपभोग के लिए है। नहीं तो, यह यों ही नष्ट हो जायगा, इससे क्या फायदा? यदि तुम्हारी विषयसुख के स्वाद में अरुचि हो तो फिर विधि ने ऐसा अनुपम रूप क्यों बनाया? कमलनयने ! तुम्हें देखने के बाद मुझे दूसरी स्त्री अच्छी नहीं लगती। जैसे कल्पलता को चाहने वाला भौंरा दूसरी लता को बिलकुल नहीं चाहता। वैसे हीं तुम्हारे रूप से मेरे सरीखे व्यक्ति का मन मोहित हो गया है, इसीलिए दूसरी कोई स्त्री मुझे बढ़िया नहीं लगती। इसीलिए मुझ पर कृपा करो और कामदेव रूपी समुद्र में डूबे हुए इस प्रेमी को उबारो। " सार्थवाह के ये वचन सुनकर सुकुमालिका ने विचार किया - " इस संसार में कर्म की लीला बड़ी विचित्र है। विधाता के अकल्प्य विधान को कौन समझ सकता है?" कहा भी है अघटितघटितानि घटयति, सुघटितघटितानि जर्जरीकुरुते । विधिरेव तानि घटयति, यानि पुमान्नैव चिन्तयति ॥ १२८॥ ' विधाता ही अघटित ( अयोग्य) घटनाओं को घटित करके बता देता है और जो सुघटित (अच्छी तरह बनी हुई ) घटनाएँ हैं, उन्हें तितरबितर कर देता है। मनुष्य जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता ऐसी घटनाएँ विधि घटित कर देता है।' ॥१२८॥ "यदि विधाता की ये चेष्टाएं संभव न होती तो मेरे भाई मुझे मरी हुई समझकर जंगल में क्यों छोड़ जाते ? और इस सार्थवाह के साथ संपर्क भी कैसे होता ? इसीलिए मालूम होता है, अभी तक कुछ भोगावली कर्म मुझे भोगने बाकी हैं। साथ ही यह सार्थवाह भी मेरा महान् उपकारी है। इसीलिए मेरे संगम के अभिलाषी इस सार्थवाह की भावना पूर्ण करूँ।" ऐसा विचारकर सुकुमालिका सार्थवाह के चरणों में पड़ी और हाथ जोड़कर बोली - "स्वामिन्! मेरा यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है। आप इसे स्वीकार करो और अपना यथेष्ट मनोरथ पूर्ण करो। " यह सुनकर सार्थवाह बड़ा खुश हुआ और उसे अपने नगर में ले 290
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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