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________________ श्री उपदेश माला गाथा १८३-१८४ स्वयं आत्मदमन एवं गर्व, विषय त्याग श्रेष्ठ है आया। उसे एक महल दे दिया और आनंद से विषयसुखों का उपभोग करते हुए जिंदगी बिताने लगा। ___काफी अर्से के बाद एक बार विहार करते हुए ससक और भसक मुनि उसी नगर में आये। उन्होंने आहार के लिए नगर में प्रवेश किया। भिक्षा के लिए घूमते हुए वे दोनों कर्मयोग से सुकुमालिका के ही घर धर्मलाभ देने पहुँच गये। सुकुमालिका ने तो अपने भाईयों को मुनि रूप में देखते ही पहचान लिया, परंतु मुनि भ्राताओं ने उसे अच्छी तरह से नहीं पहचाना। अतः वे उसके सामने ताक-ताककर देखने लगे। तब सुकुमालिका ने पूछा- "मुनिवर! आप मेरी और टकटकी लगाये क्यों देख रहे हैं?' वे बोले- "तुम जैसी आकृति और रूप वाली पहले हमारी एक बहन थी।" सुनते ही सुकुमालिका की आँखों से आँसू उमड़ पड़े। उसने रोते-रोते अपनी सारी आपबीती भाईयों को सुनाई। भाईयों ने सार्थवाह को कुछदिन तक समझाकर प्रतिबोधित करके सुकुमालिका को गृहवास से मुक्त कराया और फिर से साध्वी-दीक्षा दी। साध्वी सुकुमालिका भी शुद्ध निरतिचार चारित्र की आराधना करके अंत में शुद्ध आलोचनापूर्वक.मरकर स्वर्ग में पहुंची। . सुकुमालिका की इस कथा से यही प्रेरणा मिलती है कि अत्यंत धर्मिष्ठ व्यक्ति को भी विषय-विकार पर भरोसा नहीं करना चाहिए। और यह भी कदापि नहीं सोचना चाहिए कि "मैं वृद्धावस्था से जीर्ण हो गया हूँ, अब विषय-विकार मुझे क्या सतायेंगे?" साधु पुरुषों को विषय-विकारों से सदैव सावधान रहना चाहिए, ताकि बाद में पश्चात्ताप करना न पड़े ॥१८२॥ खरकरहतुरयवसहा, मत्तगइंदा वि नाम दम्मति । इक्को नवरि न दम्मइ, निरंकुसो अप्पणो अप्पा ॥१८३॥ शब्दार्थ - 'गधा, ऊंट, घोड़ा, बैल और मदोन्मत्त हाथी को भी युक्ति-पूर्वक वश किया जा सकता है, मगर वश में नहीं किया जा सकता है तो एक निरंकुश स्वेच्छाचारी अपनी आत्मा को ही।' आत्मा को ही नियंत्रित (दमन) करना वही सर्वश्रेष्ठ है ।।१८३।। वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहिं वहेहि अ ॥१८४॥ -उत्तराध्ययन१/१६ शब्दार्थ - मैं स्वच्छन्दाचारी और असंयमी बनकर कुमार्ग में पड़कर दूसरों के द्वारा रस्सी आदि बंधनों और लकड़ी, चाबुक आदि के प्रहारों से काबू (दमित या नियंत्रित) किया जाऊं; इससे तो बेहतर यही है कि मैं अपने आप (आत्मा) को संयम 291
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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