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________________ कुमालिका दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा १८१-१८२ यानी ऐसे नमूने तो विरले ही मिलते हैं। इसीलिए ऐसे आलंबन की ओट में आत्मसाधना के प्रति उपेक्षा करना उचित नहीं है। बल्कि विशेष सावधान होकर धर्माचरण में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस जन्म में बोये हुए उत्तम धर्मबीज का ही भविष्य में (अगले जन्म में) उत्तम फल प्राप्त हो सकता है। अतः कोई भी बहाना बनाकर धर्मानुष्ठान में प्रमाद करना किसी भी हालत में उचित नहीं है ।। १८० ।। निहिसंपत्तमहन्नो, पत्थिंतो जह जणो निरुत्तप्पो । इह नासड़ तह पत्तेअ बुद्धलद्धिं पडिच्छंतो ॥१८१॥ शब्दार्थ - जैसे किसी निर्धन मनुष्य को अचानक रत्नादि का निधान मिल जाये पर वह प्रमाद के वश होकर पुरुषार्थ नहीं करता तो उस निधि का भी नाश कर देता है। वैसे प्रत्येकबुद्ध की लब्धि की इच्छा करने वाला पुरुष भी तप-संयम आदि त्याग-बलिदान की क्रिया नहीं करता; ।। १८१ । । अर्थात् प्रमाद में पड़कर धर्माचरण को छोड़ देता है तो वह मोक्ष रूप निधान को नष्ट कर देता है। वह लब्धियों (सिद्धियों) के चक्कर में पड़कर कदापि आत्महित नहीं कर सकता ।। १८१ । । सोऊण गइ सुकुमालियाए, तह ससग - भसग - भयणीए । ताव न विससियव्यं, सेयट्ठी धम्मीओ जीव ॥१८२॥ शब्दार्थ - 'ससक और भसक नाम के दोनों भाईयों की बहन सुकुमालिका की क्या हालत हुई?' इसे सुनकर चाहे शरीर में खून और मांस सूख जाय और हड्डियाँ सफेद हो जाय; फिर भी मोक्षार्थी श्रेयस्कामी धार्मिक साधुओं को विषयादि का विश्वास नहीं करना चाहिए ।। १८२ ।। प्रसंगवश यहाँ सुकुमालिका की कथा दे रहे हैं सुकुमालिका का दृष्टांत वसंतपुर नगर में सिंहसेन राजा राज्य करता था। उसकी सिंहला नाम की रानी थी। उस रानी की कुक्षि से ससक और भसक नामक दो पुत्र हुए। वे दोनों हजार-हजार योद्धाओं को पराजित कर सकने वाले बलवान थें। उन दोनों की सुकुमालिका नाम की अत्यंत रूपवती एक बहन थी । एक समय किसी आचार्य का अनुपम अमृतरसपूर्ण धर्मोपदेश सुनकर विरक्त ससक और भसक ने चारित्र अंगीकार कर लिया। आगे चलकर वे दोनों गीतार्थ मुनि हुए। उन्होंने अपने संसार पक्ष के नगर में जाकर अपनी बहन सुकुमालिका को प्रतिबोध दिया। इस कारण उसने भी विरक्त होकर चारित्र ले लिया। तत्पश्चात् वह साध्वीजी के पास रहकर 288
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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