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________________ श्री उपदेश माला गाथा १८० निमित्तों से दूर रहना और ठाठबाठ अपनी आँखों से देख ले। सुनते ही मरुदेवी माता पुत्रदर्शन के लिए अत्यंत उत्सुक हुई। भरत महाराज ने उन्हें हाथी पर बिठाया। वे दोनों समवसरण की ओर चले। समवसरण के निकट पहुँचते ही देवदुंदुभि का शब्द सुनकर मरुदेवी माता को प्रसन्नता हुई और देवदेवियों के मुंह से जय-जयकार के नारे सुनकर उसके हर्ष से रोंगटे खड़े हो गये आँखों में हर्ष के आँसू उमड़ आये। इसके कारण उनके नेत्रों पर आया हुआ जाला (पर्दा) खुल गया। अतः तीन गढ़ वाला समवसरण, अशोकवृक्ष तथा छत्र-चामर आदि सर्व वैभव उसने प्रत्यक्ष देखा। अनुपम प्रातिहार्य आदि की समृद्धि देखकर माता मन ही मन विचार करने लगी 'धिक्कार है इस संसार को! और धिक्कार है ऐसे मोह को भी! क्योंकि मैं यों समझती थी कि मेरा पुत्र अकेला जंगल में भूखा-प्यासा भटक रहा होगा परंतु इसने तो इतनी विशाल समृद्धि प्राप्त कर ली है। एक तो यह है कि इतना वैभव पाने पर भी इसने मुझे कभी संदेश तक नहीं भेजा; और एक मैं थी कि इस पर मोह के कारण हमेशा दुःखी रहा करती थी। इसीलिए ऐसे एक तरफा कृत्रिम स्नेह को धिक्कार . है! कौन किसका पुत्र है? और कौन किसकी माता है? दुनियादारी के ये सारे स्वार्थी रिश्ते-नाते हैं। वास्तव में संसार में कोई किसी का नहीं है।" इस तरह अनित्य-भावना का चिंतन करते घातिकर्म का क्षय होने से मरुदेवी माता ने वही केवलज्ञान प्राप्त करके अंतर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त कर लिया। मरुदेवी माता ने सर्व प्रथम सिद्धगति (मुक्ति) प्राप्त की। देवों ने आकर मरुदेवी माता के अनुपम गुणगान करके उनके मृत शरीर को क्षीर-सागर में बहा दिया। मरुदेवी माता के इस दृष्टांत की ओट लेकर कई लोग ऐसा कहने लगते हैं कि 'तप-संयम का अनुष्ठान किये बिना ही जैसे मरुदेवी माता ने सिद्धिपद प्राप्त किया था वैसे हम भी सिद्धिपद प्राप्त कर लेंगे। लेकिन ऐसे आलंबन की ओट लेना दीर्घद्रष्टा व विवेकी पुरुषों के लिए योग्य नहीं है।।१७९।। ___.. किं पि कहिं पि कयाई, एगे लद्धीहिं केहि वि निभेहिं । पत्तेअबुद्ध-लाभा, हयंति अच्छेरयभूया ॥१८०॥ शब्दार्थ - कई प्रत्येकबुद्ध पुरुष किसी समय भी कहीं भी बूढ़े बैल आदि वस्तु को देखकर, तदावरणकारक कमों के क्षयोपशम से या लब्धि से या किसी भी निमित्त से विषयभोग से विरक्त होकर तत्काल स्वतः प्रतिबुद्ध होकर स्वयंमेव दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ये प्रत्येक बुद्ध जो अनायास ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं यह तो आश्चर्यभूत है ।।१८०।।। - 287
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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