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श्री मरुदेवी माता की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १७६ हम भी वधादि के विपाक (प्रतिफल) का अनुभव किये बिना और तप-संयम आदि धर्मानुष्ठान किये बिना ही मोक्षपद प्राप्त कर लेंगे ।।१७९।।
भावार्थ - ऐसा कहकर या ऐसा मिथ्या आलंबन लेकर धर्मसाधना में उपेक्षा करना, आत्मवंचना करना है, यह दृष्टांत तो एक आश्चर्यभूत है। ऐसी निर्मल भावना आनी भी कठिन है। [मरुदेवी माता ने भी पूर्व जन्म में केले के भव में बोरड़ी के कांटे की पीडा अत्यधिक मात्रा में सहन की थी। ऐसा वृद्धवाद है अतः ऐसा उदाहरण, आलंबन ग्रहण करने योग्य नहीं है।] यहाँ मरुदेवी माता की कथा दी जा रही है।
श्री मरुदेवी माता की कथा ___ जब प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभस्वामी ने जैनेन्द्री मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली, तब भरत राजा राज्य का अधिकारी बना। भरत को हमेशा मरुदेवी माता उपालंभ दिया करती थी-"बेटा! तूं राज्यसुख में इतना मोहित हो गया है, इसीलिए मेरे पुत्र ऋषभ की तूं कोई सारसंभाल नहीं लेता। मैंने लोगों के मुख से सुना है कि वह मेरा लाडला पुत्र एक वर्ष हुआ, अन्न-जल के बिना भूखा-प्यासा
और वस्त्र रहित होकर अकेला जंगल में घूम रहा है, सर्दी, गर्मी, बरसात आदि सहन करता है, और भी बहुत दुःखों का अनुभव करता है। इसीलिए एक बार तूं मेरे पुत्र को यहाँ ले आ, ताकि मैं उसे अपने हाथों से भोजन दे दूं और कम से कम एक बार अपने पुत्र का मुख तो देख लूं।" यह सुनकर भरत ने कहा"माताजी! आप बिलकुल चिन्ता न करें। हम सब आप ही के तो पुत्र हैं।" माता ने कहा-"वत्स! तूं जो कुछ कह रहा है, वह सत्य है; लेकिन आम खाने की चाह वाले मनुष्य को इमली से कैसे संतोष हो सकता है? इसीलिए उस पुत्र ऋषभ के बिना यह सारा ही संसार मेरे लिये सूना है।" इस प्रकार दादीमा हमेशा उपालंभ देती रहती और पुत्रवियोग के कारण विलाप करती थी अत्यधिक शोक के कारण मरुदेवी माता के नेत्रों पर जाला (पर्दा) आ गया। इसी में एक हजार वर्ष जितना लंबा समय बीत गया।
एक समय श्री ऋषभदेव-स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ; उस समय चौसठ इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना की। वनपालक ने आकर भरतराजा को यह खुशखबरी सुनाकर बधाई दी। सुनते ही भरत राजा सहर्ष मरुदेवी माता के पास आये और उन्हें खुशखबरी सुनाते हुए बोले- "दादीमा! आप मुझे हमेशा उपालंभ दिया करती थी कि मेरा पुत्र सर्दी-गर्मी आदि दुःख उठा रहा है और अकेला ही वन में भ्रमण कर रहा है; तो आज आप मेरे साथ चलकर अपने पुत्र का वैभव 286