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________________ श्री उपदेश माला गाथा १७६-१७६ लघुकर्मी, भारेकर्मी, पापभीरू, पापफल की व्याख्या जिणपह-अपंडियाणं, पाणहराणं पि पहरमाणाणं । न ति य पावाइं, पावस्स फलं वियाणंता ॥१७६॥ शब्दार्थ - मुनि पाप का फल नरकादिक है, ऐसा भलीभांति जानते हैं, इसीलिए जिनमार्ग से अनभिज्ञ, अधर्म, अज्ञानी, अविवेकी, पापी और परितापकारी लोग जो तलवार आदि से प्रहार करके प्राणों का हरण करते हैं, उनके प्रति भी द्वेष, रोष, वधादि पापकर्म वे नहीं करते। अर्थात् उनके मारने का चिन्तनरूप पापकर्म भी वे नहीं करते, और न उनका द्रोह या अहित ही करते हैं ।।१७६ ।। वह-मारण-अभक्वाण-दाणपरधणविलोवणाईणं । सव्वजहन्नो उदओ, दसगुणिओ इक्कसि क्याणं ॥१७७॥ शब्दार्थ - एक बार किये हुए वध, लकड़ी आदि से किये गये प्रहार, प्राण के नाश करने, मिथ्या कलंक देने, दूसरे के धन का हरण करने या चोरी करने, किसी को मर्मस्पर्शी शब्द बोलने, गुप्त बात प्रकट करने वगैरह इन पापकर्मों का जघन्य (कम से कम) उदय हो तो दसगुना फल मिलता है। अर्थात् एक बार जीव को मारने आदि से वह जीव उसे दस बार मारने आदि वाला होता है। मतलब है कि इन गुनाहों में से किसी भी गुनाह का सामान्य प्रतिफल दसगुना मिलता है ।।१७७।। . तिव्ययरे उ पआसे, सयगुणिओ सयसहस्सकोडिगुणो। कोडाकोडिगुणो वा, हुज्ज विवागो बहुतरो वा ॥१७८॥ - शब्दार्थ - परंतु ऊपर बताये गये पाप तीव्रतर द्वेष से (अतिक्रोध आदिवश) किये जाये तो सौगुना विपाक (प्रतिफल) उदय में आता है। उससे भी अधिक तीव्रतर द्वेष से क्रमशः हजार गुना, लाख गुना, करोड़ गुना विपाक में उदय आता है और उससे तीव्रतम अतिशय द्वेष-क्रोध आदि से या वधादिक पाप करने से कोटाकोटीगुणा अथवा इससे भी अधिक विपाक उदय में आते हैं। अर्थात् जैसे कषाय से कर्म बांधा होगा वैसा ही विपाक उदय में आता है और उसे उतनी मात्रा में वह प्रतिफल भोगना ही पड़ता है ।।१७८।। केइत्थ करताऽऽलंबणं, इमं तिहुयणस्स अच्छेरं । जह नियमा खवियंगी, मरुदेवी भगवई सिद्धा ॥१७९॥ शब्दार्थ – कई भोले और स्थूलबुद्धि वाले लोग वधादि के प्रतिफल के बारे में तीनों लोक में आश्चर्यजनक इस खोटे आलम्बन को लेकर कहते हैं कि मरुदेवी माता ने कौन-सा तप-संयम का कष्ट उठाकर अपने अंगों को क्षीण किया था? फिर भी जैसे वे सिद्धगति पा गयी; पहले किसी भी प्रकार के धर्म का आचरण किये बिना ही श्रीऋषभदेव की माता श्रीभगवती मरुदेवी ने मोक्ष प्राप्त कर लिया था; वैसे ही 285
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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