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________________ लघुकर्मी, भारकर्मी, पापभीरु, पापफल की व्याख्या श्री उपदेश माला गाथा १७२ - १७५ सुहिओ न चयड़ भोएं, चयइ जहा दुक्खिओत्ति अनियमिणं । चिक्कणकम्मोवलित्तो, न इमो न इमो परिच्चयई ॥ १७२ ॥ शब्दार्थ - लोग कहते हैं कि जैसे दुःखी मनुष्य विषयभोग आदि का त्यागकर देता है, वैसे सुखी मनुष्य उसका सहसा त्याग नहीं कर सकता; यह बात असत्य है। यह एकांत नियम नहीं है। चिकने कर्मों से उपलिप्त व्यक्ति चाहे सुखी हो अथवा दुःखी; वह भोग को नहीं छोड़ सकता ।। १७२ । । ' भोगों को छोड़ना सुखी या दुःखी मनुष्य के बस की बात नहीं है।' परंतु जो लघुकर्मी हो, वही विषय भोग आदि का त्याग कर सकता है ।।१७२ ।। जह चयड़ चक्कवट्टी, पवित्थरं तत्तियं मुहुत्तेण । न चयइ तहा अहन्नो, दुबुद्धी खप्परं दमओ ॥१७३॥ शब्दार्थ - जैसे लघुकर्मी चक्रवर्ती क्षणमात्र में षट्खंड की राज्यलक्ष्मी को छोड़ देता है, वैसे अपुण्यशाली दुर्बुद्धि निर्धन भिखारी गाढ़ कर्मों से लिप्त होने के कारण भीख मांगने का अपना एक खप्पर भी नहीं छोड़ सकता ।। १७३ ।। देहो पिवीलियाहिं, चिलाड़पुत्तस्स चालणी व्व कओ । तणुओ वि मणपओसो, न चालिओ तेण ताणुवरिं ॥१७४॥ शब्दार्थ - चींटियों ने चिलातीपुत्र का शरीर चालनी की तरह छिद्रों वाला बना दिया। फिर भी उन्होंने मन से जरा भी उन पर द्वेष नहीं किया और न अपने. शुभध्यान से चलित हुए। ढाई दिन तक अखंड ध्यान रखकर वह मुनि स्वर्ग में पहुँचे।।१७४।। इसकी कथा ३८ वी गाथा में आ चुकी है। पाणच्चए वि पावं, पिवीलियाए वि जे न इच्छंति । ते कह जई अपावा, पावाई करेंति अन्नस्स ॥१७५॥ शब्दार्थ - जो मुनि प्राणांत कष्ट देने वाली चींटियों पर क्रोधवधादि पाप करने की इच्छा नहीं करते, वे निष्पाप मुनि अन्य मनुष्यों के प्रति पापकर्म का आचरण करेंगे ही कैसे? अर्थात् - वे दूसरों पर प्रतिकूल आचरण सर्वथा नहीं करते।।१७५।। भावार्थ - दोषरहित मार्ग में चलने वाले महामुनि किसी को कभी भी परिताप 'पीड़ा' नहीं पहुँचाते। वे जब शरीर को चालनी जैसा छिद्रयुक्त बना देने वाली चींटियों का जरा भी विनाश नहीं चाहते, तब फिर अन्य जीवों का अहित तो कर ही कैसे सकते हैं? यही इस गाथा का तात्पर्य है ।। १७५ ।। 284
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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