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________________ श्री उपदेश माला गाथा १७० पुष्पचूला की कथा बहुत कह सुनकर राजा को मना लिया। राजा ने कहा - "एक शर्त पर मैं तुम्हें आज्ञा दे सकता हूँ कि दीक्षा लेकर तूं यहीं रहे और मेरे घर से भिक्षा ग्रहण करें। " रानी ने इसे स्वीकार किया और अर्णिकापुत्र आचार्य से दीक्षा अंगीकार की। पुष्पचूला साध्वी बनने के बाद वहीं रहकर राजा के यहाँ से हमेशा शुद्ध भिक्षा लेती, और शुद्ध चारित्र - धर्म की आराधना करने लगी। भविष्य में १२ वर्ष का दुष्काल पड़ने वाला है, यह बात आचार्य अर्णिकापुत्र ने एक दिन ज्ञान से जानकर अपने सभी साधुओं को अलग-अलग दिशा में भेज दिये और स्वयं नहीं चल सकने से वहीं रहे। साध्वी पुष्पचूला हमेशा गुरुमहाराज को आहार- पानी लाकर देने लगी और अपने पिता के समान उनकी सेवा करने लगी । इस तरह प्रतिदिन गुरुभक्ति में परायण रहती हुई साध्वी पुष्पचूला को शुभध्यान के योग से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर भी वह गुरु महाराज को आहार- पानी लाकर देती रही। एक बार वर्षा हुई; फिर भी पुष्पचूला गुरुदेव के लिए भिक्षा लेकर आयी। तब गुरुमहारज ने कहा- 'वत्से ! तूं. यह क्या करती है? एक तो मैं स्थिरवासी हूँ, दूसरे, मैं साध्वी के द्वारा लाया हुआ आहार ग्रहण करता हूँ, फिर तूं बरस रही बरसात में भी मुझे आहार लाकर देती है; क्या यह उचित और कल्पनीय है?' तब पुष्पचूला साध्वी ने कहा – 'गुरुदेव ! यह मेघवृष्टि अचित्त है।' गुरुमहाराज ने कहा - "यह तो केवलज्ञानी ही जान सकते हैं। " पुष्पचूला ने सहजभाव से कहा - ' - "स्वामिन्! आपकी कृपा से मुझे वही ज्ञान हुआ है।" यह सुनकर आचार्य पश्चात्ताप करने लगे - " धिक्कार है मुझे, मैंने केवली की आशातना की।" इस प्रकार खेद करते हुए उससे क्षमायाचना की। साध्वीजी ने कहा - 'स्वामिन्! आप क्यों दुःखी हो रहे हैं? आप भी गंगानदी पार करते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जायेंगे ।' यह सुनकर गुरुमहाराज गंगा किनारे आकर नाव में बैठे। इतने में पूर्वजन्म का वैरी कोई देव. आकर जिस तरफ गुरुमहाराज बैठे थे, उस तरफ के हिस्से को जल में डूबाने लगा। अतः गुरुमहाराज वहाँ से उठकर नाव के मध्य में बैठे। तब वह पूरी नाव को ही डूबाने लगा। उसे देखकर अनार्यलोगों ने विचार किया- 'अरे! इस साधु के कारण हम सब डूब मरेंगे।' ऐसा सोचकर सभी ने मिलकर आचार्य को उठाकर पानी में फेंक दिया। उस समय उस देव ने आकर उनके शरीर के नीचे त्रिशूल धारण करके रखा। उस त्रिशूल के कारण आचार्य अर्णिकापुत्र का सारा शरीर विंध गया। उस समय अपने शरीर में से निकलते खून को देखकर वे मन में विचार करने लगे - ' अरर ! मेरे इस खून से जल के जीवों की विराधना हो रही है।' इस प्रकार 281
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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