SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्णिकापुत्र की कथा श्री उपदेश माला गाथा १७१ अनित्यभावना का चिन्तन करते-करते घातिकर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्तकर आचार्यदेव मोक्ष पधार गये। वहाँ देवों ने उनके शरीर की अन्त्येष्टि कर के महिमा की। इसके बाद लोगों ने यह अफवाह फैला दी कि 'जो गंगा में मरता है, वह जीव मोक्ष प्राप्त करता है।' लोग उस स्थान को प्रयागतीर्थ के नाम से पुकारने लगे। इस प्रकार प्रयागतीर्थ प्रसिद्ध हो गया ॥१७०।। जो अविकलं तवं संजमं च, साहु करिज्ज पच्छा वि । __ अन्नियसुओ ब्व सो नियगमट्ठमचिरेण साहेइ ॥१७१॥ शब्दार्थ - 'जो वृद्धावस्था में भी प्रतिबोध प्राप्त करके अखंड तप-संयम की साधना करता है, वह आचार्य अर्णिकापुत्र की तरह अपनी अक्षयसुख की साधना का अर्थ शीघ्र ही अल्पकाल में सिद्ध कर लेता है' ।।१७१।। अर्थात् - जो यौवनावस्था में विषयासक्त हो, किन्तु जिंदगी के अंतिम समय में धर्माचरण कर लेता है, वह अपने आत्महित को सिद्ध कर सकता है। यहाँ ऊपर की कथा में वर्णित अर्णिकापुत्र का बाकी रहा हुआ पूर्वजीवन का चरित्र-चित्रण कर रहे हैं अर्णिकापुत्र की कथा उत्तरमथुरा नगरी में कामदेव और देवदत्त नाम के दो व्यापारीपुत्र रहते थे। उन दोनों में परस्पर गाढ़ मित्रता थी। वे एक दिन अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर व्यापार के लिए दक्षिणमथुरा में गये। वहाँ उनकी जयसिंह नामक एक वणिकपुत्र के साथ मैत्री हो गयी। जयसिंह के अर्णिका नाम की बहन थी। वह अतिरूपवती थी। एक दिन जयसिंह ने अपनी बहन अर्णिका से कहा- "बहन! आज तूं बढ़िया रसोई बना। क्योंकि आज मेरे दो मित्र कामदेव और देवदत्त हमारे यहाँ भोजन करने के लिए आयेंगे।" अतः अर्णिका ने उत्तम रसोई बनायी। भोजन के समय तीनों मित्र . एक ही थाली में साथ-साथ भोजन करने बैठे। अर्णिका ने उन्हें भोजन परोसा और उनके पास खड़ी होकर वह कपड़े के पल्ले से हवा करने लगी। उस समय उसके कंकणों की झंकार, उसके स्तन, उदर, कटि प्रदेश, नेत्र और मुख का हावभाव और विलास देखकर देवदत्त अत्यंत कामातुर हो गया।' घी के बर्तन में जब अर्णिका का प्रतिबिंब देखा तो वह और भी अधिक काम विह्वल हो गया। भोजन अब उसके लिये विषरूप हो गया, अतः वह कुछ भी खाये बिना जल्दी से उठ गया। दूसरे दिन उसने अपना अभिप्राय मित्र कामदेव के द्वारा जयसिंह को कहलवाया। तब जयसिंह ने कहा- "मित्र! मेरी यह बहन मुझे अतिप्रिय है और 282
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy