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________________ कुगुरु अंगारमर्दकाचार्य की कथा एवं स्वजन से प्रतिबोध श्री उपदेश माला गाथा १७० लगे। फिर अपने शयनासन पर जाकर सो गये। इतने में रुद्रदेवाचार्य स्वयं लघुशंका करने के लिए उठे। उनके चरणों से भी कोयले दबे। उसकी आवाज सुनकर वे और अधिक दबाने लगे और कहने लगे–'ये अर्हत् के जीव दबने के कारण पुकार कर रहे हैं।' उनके ये उद्गार विजयसेनसूरि ने सुने। उन्होंने प्रातःकाल रुद्रदेव के शिष्यों से कहा- 'तुम्हारे गुरु अभव्य मालूम होते हैं। मैंने इस बात की परीक्षा ली है। इसीलिए तुम्हें इनको छोड़ देना चाहिए।' यह सुनकर उन्होंने रुद्रदेव को गच्छ से बहिष्कृत कर दिया। और वे पाँच सौ शिष्य संयम की निरतिचार आराधना करके अंत में समाधि से मर कर देवता बनें। वहाँ से आयु पूर्णकर वसंतपुर नगर में राजा दिलीप के यहाँ उन पाँच सौ ने पुत्ररूप में जन्म लिया। बचपन पार करके उन्होंने युवावस्था प्राप्त की। एक समय में वे पाँच सौ राजपुत्र गजपुरनगर में कनकध्वज राजा की पुत्री के स्वयंवर में गये थे। उस समय अंगारमर्दकाचार्य (रुद्रदेव) का जीव भयंकर भवसमुद्र में परिभ्रमण करते-करते ऊंट के रूप में उत्पन्न हुआ, उसे वहाँ आया हुआ देखा। वह अधिक बोझ के कारण पीड़ित होकर जोर-जोर से चिल्ला रहा है। इसने पूर्वजन्म में कौनसा अशुभ कर्म किया है? इस तरह बार-बार चिन्तन करते-करते उन पाँच सौ राजपुत्रों को जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। उसके बल से उन्होंने अपने पूर्वजन्म का स्वरूप देखा; जिससे वे बोले कि 'अरे! यह हमारा पूर्वजन्म का अभव्य गुरु ऊंट के रूप में उत्पन्न होकर यहाँ आया है। कर्म की गति विचित्र है! इसने पूर्वजन्म में ज्ञान प्राप्त किया था परंतु श्रद्धा के बिना यह निष्फल हुआ। इसीलिए इसकी ऐशी दशा हुई है। और अब भी यह अनंत जन्म-मरण करेगा।" इस प्रकार विचारविमर्श करके करुणावश उस ऊंट को उसके स्वामी से छुड़ा लिया। तत्पश्चात् वे पाँच सौ राजपुत्र विचार करने लगे- "यह संसार अनित्य है। चिरपरिचत विषयसुख किंपाकफल के समान है और हाथी के कान के समान चंचल है। ऐसी राज्यलक्ष्मी को भी धिक्कार है। इस तरह वैराग्ययुक्त चित्त से उन्होंने चारित्र अंगीकार किया और अंत में वे सद्गति के अधिकारी बनें। इस तरह सुशिष्य भी भवांतर में गुरु पर उपकार करने वाले होते हैं; ऐसा इस कथा का उपदेश है ॥१६९॥ संसारवंचणा न वि, गणंति संसार-सूयरा जीवा । सुमिणगएण वि केई, बुझंति पुप्फचूलाव्य ॥१७०॥ शब्दार्थ - पुद्गलानन्दी, भवाभिनन्दी और संसार में अत्यंत आसक्त जीव 278
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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