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________________ श्री उपदेश माला गाथा १६८-१६६ कुगुरु अंगारमर्दकाचार्य की कथा एवं स्वजन से प्रतिवोध विशुद्धध्यान के कारण गुरुमहाराज चंडरुद्राचार्य को भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया। दोनों केवली अवस्था में दीर्घकाल तक विचरण करके मोक्ष पहुँचे। इसीलिए सुशिष्य गुरुमहाराज को भी विशेष-धर्म प्राप्त करवाता है; यही इस कथा का उपदेश है।।१६७।। ____ अंगारजीयवहगो, कोई कुगुरु सुसीसपरिवारो । सुमिणे जईहिं दिट्ठो, कोलो गयकलहपरिकिन्नो ॥१६८॥ शब्दार्थ - कोयले की कंकरी में जीव मानकर हिंसा करने वाले किसी कुगुरु के सुशिष्यों ने दूसरे आचार्य के मुनियों को स्वप्न में एक डुक्कर को गजकलभों से सेवित देखा। उस आचार्य के कहने से वह पहचाना गया। और उसे छोड़ दिया।।१६८।। सो उग्गभवसमुद्दे, सयंवरमुवागएहिं राएहिं । कहो वक्खरभरिओ, दिट्ठो पोराण सीसेहिं ॥१६९॥ शब्दार्थ - 'उस कुगुरु ने उग्र संसारसमुद्र में परिभ्रमण करते हुए ऊंट के रूप में जन्म लिया। उसे पूर्वजन्म के शिष्यों ने, जो अगले जन्म में राजपुत्र बने थे, स्वयंवर में आये थे, ऊंट के रूप में अपने पूर्वजन्म के गुरु को देखकर करुणा लाकर उसे दुःख से मुक्त किया। इन दोनों गाथाओं की विशेष जानकारी निम्नोक्त कथा से जान लेना। अंगारमर्दकाचार्य की कथा किसी नगर में विजयसेन नाम के एक आचार्य बिराजमान थे। उनके शिष्यों ने रात को स्वप्न में पाँच सौ हाथियों से घिरा हुआ एक सूअर देखा! प्रातःकाल उन्होंने अपने गुरुमहाराज के समक्ष स्वप्न वृत्तांत निवेदन किया। तब गुरुदेव ने विचारकर कहा- 'शिष्यों आज कोई अभव्य गुरु पाँच सौ शिष्यों सहित यहाँ आयेगा। इस तरह तुम्हारा स्वप्न फलित होगा।' इतने में तो रुद्रदेव नाम के आचार्य पाँच सौ शिष्यों के साथ वहाँ आये। पूर्वस्थित साधुओं ने उनका आदरसत्कार किया। दूसरे दिन अभव्यगुरु की परीक्षा करने के लिए मात्रा करने के स्थान में और रास्ते में विजयसेनसूरि ने रुद्रदेवसूरि न जान सके, इस तरह से अपने शिष्यों को समझाकर चुपके से एक सुश्रावक के द्वारा जमीन पर कोयले बिछवा दिये। रात को उस अभव्य गुरु के शिष्य लघुशंका करने के लिए उठे तो उनके पैरों के नीचे कोयले दबने से चर्रर से शब्द होने लगा। इससे कोयलों से अनभिज्ञ होने से शंकित होकर वे पश्चात्ताप करने लगे- हाय! हमने अंधेरे में दबादब चलकर अंजाने में किसी जीव का घात किया है।" इस तरह कहकर बार-बार मिथ्या दुष्कृत देने - 277
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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